सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

सांप्रदायिकता क्या है | अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, कारण, तत्व, दृष्टिकोण, प्रभाव, निवारण | Communalism in Hindi

जीके इन हिंदी के इस नए लेख में आपका स्वागत है आज इस लेख में हमारा विषय रहेगा सांप्रदायिकता। हम समझेंगे सांप्रदायिकता क्या है यह किस प्रकार से किसी भी क्षेत्र को अपनी चपेट में लेती है इसकी उत्पत्ति कैसे होती है और समझने का प्रयास करेंगे कि राज्य यानी सरकार किस प्रकार से सांप्रदायिकता को नियंत्रित करने का प्रयास करती है व किस प्रकार से इसमें सफल होती है तो चलिए शुरू करते हैं इसकी परिभाषा से।

संप्रदाय क्या है?


धर्म या अन्य विचारधाराओं के आधार पर बने वे समूह जो हितों के टकराव के चलते एक-दूसरे से विपरीत विचार का समर्थन करते हैं संप्रदाय कहलाते हैं। दरअसल, जब कोई व्यक्ति या समूह कहीं पर रहता है तो वह अपनी एक पहचान बनाता है और किसी भी ऐसे समाज में जहां अनेक तरह के लोग रह रहे हो वहां पर प्रत्येक व्यक्ति विविधता के साथ अपनी एक अलग पहचान बनाए यह अपरिहार्य है। इस पहचान के बनने के पीछे बहुत से कारक उत्तरदायी हो सकते हैं जैसे कि हो सकता है उस व्यक्ति की संस्कृति अलग हो, भाषा अलग हो, धर्म, रीति रिवाज या उसका इतिहास अलग रहा हो। उसका क्षेत्र या अर्थव्यवस्था अलग हो, यानी कि पैसा एक लंबे समय तक एक विशेष समूह या समुदाय के पास ज्यादा रहा हो, तो ऐसे में उस समूह की अपनी एक अलग पहचान बन जाती है कई बार यह पहचान इतनी सघन हो जाती है कि पूरे समूह से कोई भी व्यक्ति खुद को अलग नहीं मान पाता, वह जिस समूह का हिस्सा होता है वह उसकी पहचान को ही अपनी पहचान मान लेता है। इस प्रकार का प्रत्येक समूह संप्रदाय बनने लगता है।

हमने जिन कारकों की बात की, संभावित है कि यह सभी कारक एक समय पर लागू नहीं होते। ज्यादातर बार ऐसा होता है कि कुछ ही कारक इनमें से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और इसी प्रकार धर्म भी एक कारक है जो कि एक अलग पहचान बनाने के लिए किसी भी व्यक्ति को बाध्य कर सकता है अब हम भारत की बात करें तो भारत एक बहु धार्मिक देश है बहुत से धर्म के लोग यहां पर रहते हैं और एक साथ रहने की वजह से बहुत बार कुछ असामाजिक तत्व एक दूसरे धर्म के प्रति या एक धर्म में रहते हुए एक दूसरे संप्रदाय के प्रति ईर्ष्या का भाव दर्शाते रहते हैं जिससे सांप्रदायिकता जन्म लेती है।

संप्रदायिकता क्या है?


सांप्रदायिकता एक ऐसी विचारधारा है जो किसी भी समुदाय के दृष्टिकोण को इंगित करती है यह दर्शाती है कि एक समुदाय का दृष्टिकोण क्या है वह दृष्टिकोण ऐसा भी हो सकता है कि वह संप्रदाय खुद को औरों से श्रेष्ठ मानने लगे या ऐसा दृष्टिकोण भी हो सकता है कि वह अन्य जो संप्रदाय हैं उनको निम्न महसूस करवाने का मौका हाथ से नहीं गंवाता हो। इससे द्वेष की भावना बढ़ती है व नफरत पैदा होने लगती है।

सांप्रदायिकता के तत्व 


संप्रदाय के कुछ तत्व होते हैं। एक पुस्तक, जिसका नाम है ' भारत का स्वतंत्रता संघर्ष' जिसे विपिन शर्मा व अन्य ने लिखा है। इस पुस्तक में यह रेखांकित किया गया है कि सांप्रदायिकता की जो विचारधारा है उसके मुख्य रूप से तीन तत्व होते हैं इसमें से सबसे पहला तत्व धर्म को रखा गया है यह पुस्तक बताती है कि धर्म का हित चाहे वह राजनीतिक हो, आर्थिक हो, सामाजिक हो या सांस्कृतिक हो उसकी रक्षा करने का एक विचार हर उस व्यक्ति के मन में होता है जो उस धर्म का अनुसरण करता है और यहीं से माना जाता है कि सांप्रदायिकता के बीज पनपते हैं। सांप्रदायिकता यानी कि खुद के धर्म को, खुद की संस्कृति को, खुद की राजनीति को या खुद के समाज को बड़ा मानना और दूसरे के समाज को, संस्कृति को नीचा समझना। तो माना गया है कि धर्म कहीं ना कहीं सांप्रदायिकता के बीज बोने में सहायक होता है यदि उसकी विचारधारा में अन्य धर्म हीन माने जाते हों।

सांप्रदायिकता का दूसरा तत्व हितों के टकराव को बताया गया है कि जब अलग-अलग समुदाय बनते हैं तो उनके हित भी अलग-अलग हो जाते हैं कई बार यही हित इस प्रकार से होते हैं कि कोई संप्रदाय जो 'अ' नाम का है उसके हित 'ब' नाम के संप्रदाय से उलट हो जाते हैं तो ऐसे में वे एक दूसरे को अपने विकास में बाधक समझने लगते हैं और यहीं से सांप्रदायिकता जन्म लेती है यानी कि दोनों समुदायों के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है सामान्यतः ये हित हर प्रकार से अलग होते हैं ना यह सामाजिक रूप से समान होते हैं ना आर्थिक ना सांस्कृतिक और ना ही राजनीतिक रूप से। इसलिए यहां पर बहुत ज्यादा संभावना होती है कि सांप्रदायिकता जन्म ले सकती है

इसके अलावा तीसरे तत्व की बात की गई है जो है - शत्रुता की भावना। प्रत्येक समाज में या प्रत्येक समुदाय में कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो अपने निजी स्वार्थ के लिए शत्रुता की भावना रखते हो और परस्पर सामने वाले समुदाय का विरोध करते हो ऐसे में उन कुछ लोगों की वजह से कई बार ऐसा होता है कि पूरा समुदाय ही आपस में झगड़ने लगता है क्योंकि उन्हें लगने लगता है कि वह जो व्यक्ति है उसके हित वास्तव में पूरे समुदाय के हित हैं। ऐसा अक्सर कम शिक्षा के कारण या अफवाहों के फैलने के कारण होता है।

सांप्रदायिकता की विशेषताएं


बात करते हैं सांप्रदायिकता की विशेषताओं की। इसका अर्थ यह है कि किस प्रकार से हम पहचान सकते हैं कि कोई विचारधारा जो किसी समाज में उत्पन्न हो रही है वह सांप्रदायिकता ही है तो इसकी कुछ निम्न विशेषताएं होती हैं।

अंधविश्वास पर आधारित: सांप्रदायिकता की सर्वप्रथम विशेषता यह है कि यह है अंधविश्वास पर आधारित होती है इसका कोई भी ठोस आधार नहीं होता यानी कि यदि कोई एक समूह दूसरे से नफरत कर रहा है तो इसका कोई ठोस आधार नहीं होगा बल्कि यह पूर्णतः अंधविश्वासों पर आधारित होता है। कुछ अंधविश्वासों के चलते ही सामने वाला समूह A यह मानने लग जाता है कि समूह B उनके हित के लिए सही नहीं है तथा उसका अस्तित्व ही खत्म हो जाना चाहिए। इस प्रकार के अंधविश्वासों के चलते सांप्रदायिकता पनपती है इस प्रकार सांप्रदायिकता की विशेषताओं में अंधविश्वास शामिल होता है।

असहिष्णुता की उपस्थिति: सांप्रदायिकता में सदैव सहिष्णुता की उपस्थिति होती है असहिष्णुता का अर्थ होता है सहन न कर पाना या धैर्य न होना। जब कोई व्यक्ति सामने वाले समूह की धारणाओं, प्रथाओं, जीवन यापन के तरीकों, पूजा पद्धति इत्यादि को सहन नहीं कर पाता तो इसे असहिष्णुता कहा जाता है और यह सांप्रदायिकता की विशेषताओं में से एक है।

दुष्प्रचार का होना: सांप्रदायिकता में दुष्प्रचार की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है जैसे कि यदि मीडिया किसी प्रकार का दुष्प्रचार करें तो यह भी सांप्रदायिकता को बढ़ावा दे सकता है या फिर समुदाय के अपने लोग ही दूसरे समुदाय के प्रति दुष्प्रचार कर सकते हैं तो बड़े स्तर पर सांप्रदायिकता के पहुंचाने का जो कारण होता है वह दुष्प्रचार होता है इसलिए दुष्परचार भी सांप्रदायिकता की एक महत्वपूर्ण विशेषता है।

अतिवाद: इसकी चौथ अनिवार्य विशेषता है कि इसमें अतिवाद की स्थिति पाई जाती है अतिवाद का अर्थ होता है किसी विचारधारा को लेकर बहुत ज्यादा संवेदनशील हो जाना या उसके प्रति बहुत ज्यादा झुकाव महसूस करना। जब एक समुदाय के लोग अपने समुदाय के प्रति बहुत ज्यादा झुक जाते हैं अति की स्थिति तक पहुंच जाते हैं तो वह दूसरे समुदायों से नफरत करने लगते हैं उन दूसरे समुदायों का अस्तित्व भी उन्हें खलने लगता है और ऐसे में इस अतिवाद के चलते सांप्रदायिकता और ज्यादा कठोर रूप धारण कर लेती है।

सांप्रदायिकता के कारण


सांप्रदायिकता के कुछ विशेष कारण होते हैं जिनके चलते यह किसी भी देश में घर कर जाती है इसके मुख्य कारण इस प्रकार हैं।

धर्म की गलत व्याख्या: धर्म किसी भी रूप में एक दूसरे से नफरत करना नहीं सिखाता, लेकिन बहुत बार धर्म की व्याख्या इस प्रकार से की जाती है कि एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों को अपना शत्रु समझने लग जाते हैं। इस प्रकार यदि धर्म की व्याख्या करने वाले ही गलती कर रहे हैं तो धर्म सांप्रदायिकता के फैलने का मूल कारण बन जाता है क्योंकि यह एक साथ मिलकर सद्भाव से रहने की बजाय नफरत करना सिखाने लगता है।

सामाजिक स्तर पर भेदभाव: सामाजिक स्तर पर जब लोग एक स्तरीकरण को अपना लेते हैं यानी कि अपने को दूसरे से बेहतर व दूसरे को तुच्छ समझने लगते हैं तो ऐसे में भी सांप्रदायिकता की भावना जन्म लेने लगती है। क्योंकि जब एक समुदाय जो दूसरे को अपने से तुच्छ समझता है तो वह उसे अपने बराबर के हक देना नहीं चाहता और ऐसे में संसाधनों को लेकर टकराव होना निश्चित हो जाता है जो कि सांप्रदायिकता रूप में हमें दिखाई देता है।

राजनीतिक दखल: चुनाव के समय राजनीतिक दल सामाजिक स्तरीकरण में हस्तक्षेप करते हैं जिस प्रकार से समाज बंटा होता है उसे कम करने की बजाए अपना वोट बैंक समझकर उसे साधने लगते हैं। इससे सामने वाला वह समूह जिससे कि वैचारिक टकराव होता है उसके खिलाफ भाषणों में जहर उगला जाता है। ऐसे में सांप्रदायिकता बढ़ती है और दोनों समूह के बीच की वैचारिक खाई चौड़ी होने लगती है

प्रशासन की विफलता: किसी भी समाज को शांत बनाए रखने का कार्य प्रशासन व सरकार दोनों का होता है लेकिन बहुत बार राजनीतिक स्थितियों के चलते या अन्य अन्य कारणों से प्रशासन व सरकार हमें उदासीन दिखाई देते हैं जिसकी वजह से कोई भी ऐसी शक्ति नहीं रहती जो कि सांप्रदायिकता को समाप्त करने का भरसक प्रयास करती दिखाई देती हो हालांकि प्रशासन और सरकार अपने स्तर पर इसे कम करने का प्रयास अवश्य करते हैं लेकिन मौजूदा समय में ज्यादातर मामलों में वे उदासीन दिखाई पड़ते हैं।

सांप्रदायिक हिंसा


अब जब ऐसा होता है कि एक समुदाय सामने वाले समुदायों को अपने हित के खिलाफ समझने लगता है तो यह दुर्भावना धीरे-धीरे हिंसा का रूप धारण कर लेती है जिसे सांप्रदायिक हिंसा कहा जाता है क्योंकि यह हिंसा इसलिए पनपती है क्योंकि दो संप्रदाय आपस में लड़ रहे होते हैं इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सांप्रदायिकता जहां पर एक जागृति है वहीं पर जब यह जागृति हिंसा में बदल जाती है तो यह सांप्रदायिक हिंसा बन जाती है जिसमें लाखों निर्दोष लोग मारे जाते हैं।

किसी भी सांप्रदायिकता का हिस्सा में बदलना अकस्मात नहीं होता यह बहुत ही पहले से माहौल बन रहा होता है परंतु अंत में ऐसा अवश्य होता है कि उकसावे में आकर अकस्मात ही सांप्रदायिक ही हिंसा होने लगती है और बाद में यह हिंसा दंगों का रूप ले लेती है जिसमें कुछ राजनीतिक दलों के नेता या कार्यकर्ता वोट बैंक के लिए शामिल भी हो सकते हैं ऐसे में यदि वे अपने संप्रदाय के लोगों को भड़काने लगे तो जहां पर यह सांप्रदायिकता धर्म से शुरू होती है या संस्कृति से शुरू होती है या अपनी पहचान से शुरू होती है वही धीरे-धीरे इसका दायरा राजनितिक शत्रुता की ओर भी बढ़ने लगता है। ऐसे में राजनीतिक लोग भी सक्रिय रूप से इसमें शामिल होते हमें दिखाई देते हैं

सांप्रदायिकता के दृष्टिकोण 


विद्वानों ने सांप्रदायिकता को अलग-अलग प्रकार से समझाने का प्रयास किया है और मुख्य रूप से उन्होंने तीन दृष्टिकोण दिए हैं - पहले दृष्टिकोण का नाम अनुभाविक अवधारणा है जिसे मुख्य रूप से विद्वानों ने विभिन्न सांप्रदायिक दंगों का अध्ययन करने के लिए प्रयोग किया है जबकि वहीं दूसरा है भौतिकवादी दृष्टिकोण। जिसके अंतर्गत परिस्थितियों को निचले सिरे से समझने की कोशिश की जाती है इसमें समझा जाता है कि राज्य यानी सरकार कैसी है उसकी प्रकृति क्या है उसकी संप्रदायों में भूमिका क्या रही है और विभिन्न समुदायों ने किस प्रकार के संगठनों का निर्माण किया है कि जिससे अंत में द्वेष की स्थिति संभाली नहीं जा सकी और इसी संदर्भ में सांप्रदायिक हिंसा को समझने का प्रयास किया जाता है।

इसके अलावा तीसरा दृष्टिकोण है - सार तत्व दृष्टिकोण। अब जैसा कि इसका नाम है इसी के अनुसार यह दृष्टिकोण सांप्रदायिकता की जड़ यानी सार को केंद्र में रखता है। जब किसी समुदाय के लोग अलग-अलग रहते हैं तो उनके आंतरिक संबंध गूढ़ हो जाते हैं जो उन्हें ओर ज्यादा अलग-अलग रखने का प्रयास करते हैं ऐसे में वे खुद को बिल्कुल ही अलग मान बैठते हैं तथा अपनी पहचान को दूसरों से भिन्न और फिर अंतिम स्तर पर जाकर बिल्कुल विपरीत मानकर श्रेष्ठ मान बैठते हैं। उन्हें ऐसा लगने लग जाता है कि सामने वाला व्यक्ति बिल्कुल उलट यानी नीच प्रवृति का है यदि उसका लाभ होगा तो हमारा नुकसान होना निश्चित है ऐसे में संप्रदायवाद बढ़ने लगता है। इस प्रकार से ये तीन दृष्टिकोण हैं जिनका प्रयोग सांप्रदायिकता व सांप्रदायिक हिंसा को समझने में किया जाता है।

सांप्रदायिकता और औपनिवेशिक शासन


अब जैसे ही हम इसके दृष्टिकोण को समझते हैं तो हमें सांप्रदायिकता की उत्पत्ति समझ में आने लग जाती है दरअसल भारत के सापेक्ष में यह माना जाता है कि सांप्रदायिकता एक ऐसी विचारधारा है जो कहीं ना कहीं औपनिवेशिक शासन की उपज है जब औपनिवेशिक शासन भारत में रहा तो उस समय अनेक विचारधाराओं का प्रभुत्व छाया रहा, जिसमें से सांप्रदायिकता भी एक थी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि धार्मिक वाद- विवाद तो हमें अक्सर पहले भी देखने को मिलता रहा है लेकिन सांप्रदायिकता की अवधारणा जो कि खुद 19वीं सदी की देन है यह दरअसल औपनिवेशिक शासन के बाद आई है ऐसा समझा जाता है कि 1857 के बाद औपनिवेशिक शासन ने जिस प्रकार से अलग-अलग समुदायों के लिए अलग-अलग नीतियां अपनाई उन नीतियों ने लोगों के बीच में दूरी को पैदा किया।

इसके अलावा यह भी माना जाता है कि अंग्रेज औपनिवेशिक प्रशासन की आलोचना करने के लिए जो बुद्धिजीवी वर्ग उपजा था वह दरअसल भाषा और पंथ के आधार पर अपनी पहचान बनाने को विवश हुआ। जिसके चलते राष्ट्रीय चेतना तो जगी लेकिन सांप्रदायिकता की जो भावना है वह भी कहीं ना कहीं लोगों में घर कर गई और परिणामस्वरूप आज जब हम बहुत बार सांप्रदायिक हिंसा होते हुए देखते हैं। हालांकि आधुनिक भारत में यह घटनाएं दिन-ब-दिन कम होती जा रही है इसमें सरकार सहित अन्य सभी संस्थाओं का योगदान है साथ में लोगों में भी शिक्षा के कारण सांप्रदायिक भावनाएं समाप्त होती दिख रही है।

औपनिवेशिक ताकतों को यह अंदाजा पहले से था कि भारत के लोग यदि एक हो गए तो उनकी सत्ता यहां पर ज्यादा दिन नहीं चलेगी इसी कारण वे इस बात पर हमेशा बल देते थे कि भारत में विविधता बहुत ज्यादा है जिस कारण यह लोग कभी भी संगठित नहीं हो सकते। इसलिए उन्होंने अलग-अलग समुदाय के लोगों के बीच मतभेदों को बढ़ाने का भरसक  प्रयास किया और साथ में जाति धर्म या भाषा इत्यादि के आधार पर जो मतभेद बन सकते थे उन मतभेदों को भी जानबूझकर औपनिवेशिक शासन द्वारा उजागर किया गया। जिसके चलते यह नफरत भरे विचार और ज्यादा गहरे हो गए और आगे चलकर सांप्रदायिकता में बदलने लगे।

जेम्स मिल द्वारा एक किताब लिखी गई है जिसका नाम है ब्रिटिश भारत का इतिहास इस किताब में इस बात का जिक्र किया गया है कि भारत के इतिहास को धर्म के आधार पर तीन कालों में बांटा जा सकता है यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि धर्म के आधार पर भारत के इतिहास को बांटने का अर्थ यह था कि लोगों में मतभेद बढ़ेंगे। यह विभाजन इस प्रकार से किया गया था जिसमें कहा गया था कि पहले कल ऐसा था जिसमें हिंदुओं का शासन चलता था जहां पर सब कुछ स्वर्णिम युग की तरह था, बाद में मुस्लिम शासको ने आक्रमण कर यहां पर सब कुछ तबाह कर दिया और यहां पर मुस्लिम शासन शुरू हुआ और बाद में अंग्रेजों ने मुस्लिम शासन को समाप्त किया और खुद का शासन यहां पर लागू किया। इस प्रकार जब अलग-अलग धर्म के आधार पर लोगों को शासन का इतिहास समझाया जाता है तो ऐसे में सांप्रदायिकता की भावना और ज्यादा बढ़ने लगती है।

अंग्रेजों द्वारा उजागर किए गए मतभेदों का ही परिणाम था कि आगे चलकर हमने देखा वर्ष 1906 में मुस्लिम लीग का गठन हुआ। यह इसीलिए हुआ क्योंकि धर्म के आधार पर बहुत पहले से ही औपनिवेशिक प्रशासन ने भारत को बांटना शुरू कर दिया था साथ में ब्रिटिश सरकार ने हिंदू धर्म के कुछ वर्गों को उकसाया ताकि कांग्रेस के अंतर्गत जो एक राष्ट्रीय एकता बन रही है उसको तोड़ा जा सके और साथ में अलग-अलग समुदायों के लिए अलग-अलग चुनावों की व्यवस्था करने का भी प्रयास किया।

औपनिवेशिक शासन में सांप्रदायिकता की भावना इस कदर बढ़ चुकी थी कि कुछ कि कुछ हिंदू इतिहासकारों ने यह मानना शुरू कर दिया कि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने हिंदुओं की प्रतिष्ठा को बर्बाद किया है तो वहीं कुछ इतिहासकारों ने यह भी बताया कि ब्रिटिश सत्ता ने इस्लाम की प्रतिष्ठा को समाप्त कर दिया है उनके अनुसार यह कहा गया कि इस्लाम की प्रतिष्ठा को वापस लाने के लिए दोबारा से इस्लामी शासन की स्थापना भारत में होनी चाहिए। अब क्योंकि यह दोनों ही विचार एक दूसरे से बिल्कुल उलट थे तो यही से भी द्विराष्ट्र सिद्धांत का जन्म हुआ और भारत दो भाग में आगे चलकर बंट गया।

तो हम देख सकते हैं कि सांप्रदायिकता किस प्रकार से एक देश को बांटती है क्योंकि 1909 में जो ब्रिटिश सरकार मार्ले मिंटो सुधार लेकर आई थी उसने दो अलग-अलग निर्वाचित मंडल हिंदुओं और मुसलमान के लिए लागू कर दिए और फिर निगम चुनाव में हिंदू और मुसलमान दोनों ही अलग-अलग क्षेत्र से चुनाव में खड़े हुए जहां पर प्रत्याशी यानी कि जो मतदान में खड़ा होता है और मतदाता जो मत देता है उन दोनों का एक ही धर्म से होना अनिवार्य हो गया और यह मांग धीरे-धीरे 1920 तक और अधिक बढ़ गई और प्रतिनिधित्व की मांग और ज्यादा होने लगी बाद में 1920 के दशक में खिलाफत आंदोलन शुरू हो गया जो पहली बार मुस्लिम समुदायों के लोगों को राजनीतिक घेरे में ले आया।

ब्रिटिश सरकार ने आगे चलकर गोलमेज सम्मेलन जो 1930 से 1932 के बीच में हुए थे वहां पर भी इसी प्रकार से अलग-अलग समुदायों को प्रतिनिधित्व दिया। जिसके चलते अलगाव की भावना और ज्यादा बढ़ने लगी इसके बाद सरकारी नौकरियों के लिए प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई और हिंदू और मुसलमान में एक टकराव की भावना जन्मी कि दोनों ही एक दूसरे के विकास में बाधक हैं और इस प्रकार से लगातार यह सांप्रदायिकता बढ़ती गई जिसने अंत में जाकर 1947 में देश का बंटवारा कर दिया।

सांप्रदायिकता की मौजूदा स्थिति


अब प्रश्न यह यह उठता है कि जब एक बार देश का बंटवारा हो चुका है तो अब जो मजूदा सरकार है वह सांप्रदायिकता को रोकने के लिए क्या कदम उठा रही है। दरअसल आजादी के बाद भी हमने यह देखा है कि भारत में सांप्रदायिक हिंसा के बहुत से मामले सामने आए हैं। ऐसा इसलिए हुआ माना जाता है कि कहीं ना कहीं धर्म राजनीति में इस्तेमाल किया जा रहा है जिसका परिणाम है कि हमें सांप्रदायिक हिंसा देखने को मिलती है। पाणिकर के अनुसार आज राजनीति व सांप्रदायिकता एक दूसरे के पूरक बन चुके हैं जिस कारण हमें भारत में इस प्रकार की घटनाएं देखने को मिलती है राजनीति के पास वह शक्ति होती है कि वह किसी भी सांप्रदायिकता को रोक सकती है या फिर उसे बढ़ावा दे सकती है।

इसके अलावा भारत में सांप्रदायिकता के बढ़ने का एक कारण यह है कि भारत में जो राज्य यानी सरकार है वह विरोधाभास की स्थिति में है एक तरफ तो उसे संविधान के अनुसार बनाए गए नियमों के अनुसार कार्य करना है तो वही समाज के बने  हुए रीति-रिवाजों को भी वह खारिज नहीं कर सकती। यदि वह ऐसा करती है तो वह समाज की जो वफादारी और निष्ठा है उसको खो देगी। इसके उदाहरण हमने मुस्लिम पर्सनल लॉ और ऑपरेशन ब्लू स्टार और सबरीमाला मंदिर के मुद्दों के रूप में देखे हैं। यद्यपि भारत की सरकार संवैधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष है लेकिन फिर भी ब्रिटिश सरकार द्वारा जो बीजबोए गए थे उनका असर आज भी हमें सांप्रदायिकता के रूप में दिखाई देता है।

सांप्रदायिकता और मीडिया


अब ऐसा नहीं है कि राज्य की ही केवल जिम्मेदारी है कि वह सांप्रदायिकता को समाप्त करें बल्कि मीडिया का भी इसमें अच्छा खासा योगदान होता है। मीडिया अलग-अलग विचारधाराओं को फैलाने में मदद करता है वह गलत विचारधाराओं को रोकने में भी वह मदद कर सकता है। भारत की बात की जाए तो सांप्रदायिकता के संबंध में मीडिया सांप्रदायिकता को बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका पर निभाता दिखाई देता है। जो भी यह रिपोर्टिंग करता है या किसी भी प्रकार की सांप्रदायिक हिंसा पर टिप्पणी करता है उसे दंगे भड़क भी सकते हैं और रुक भी सकते हैं। तो यहां पर मीडिया का बहुत ही ज्यादा योगदान होता है चाहे फिर वह देंगे को भड़काने में हो या फिर उसे रोकने में हो।

हाल ही में प्रिंट मीडिया, अखबार, मैगजीन और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अतिरिक्त सोशल मीडिया जैसे कि व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर इत्यादि में फेक न्यूज़ आम बात बन गई है। जो की बहुत बार सांप्रदायिक तनाव पैदा कर देती है और मीडिया में बहुत बार ऐसी खबरें भी फैलती है जिनका कोई आधार नहीं होता और क्योंकि अब मीडिया की पहुंच पहले से बहुत ज्यादा है और साथ में सोशल मीडिया का दबदबा है तो एसे मैं सेंसरशिप के जरिए इसे नियंत्रित भी आसान नहीं होता जिस कारण गलत अफवाह है बड़ी तेजी से फैलती है और सांप्रदायिकता का कारण बन जाती है।

सांप्रदायिकता के प्रभाव


सांप्रदायिकता एक नकारात्मक विचारधारा है इसलिए इसके प्रभाव भी नकारात्मक होते हैं जो कि देश की एकता, लोकतंत्र व सद्भावना को क्षति पहुंचाते हैं। इसके प्रभाव निम्न हैं।

राष्ट्रीय एकता में बाधा: जब किसी देश की जनता अलग-अलग समूह में बट जाती है तो उनमें एकता का अभाव होने लगता है अर्थात राष्ट्र जो की एकता के सूत्र में बंधा होता है उसकी जनता धीरे-धीरे गुटों में बंटकर आपस में ही हिंसा करने लगती है ऐसे में राष्ट्रीय एकता को चोट पहुंचती है और वह बाधित होती है।

राष्ट्रीय शांति में क्षति: जब सभी लोग एकता से मिलजुल कर रहते हैं तो देश में शांति बनी रहती है और वह विकास की गति को प्राप्त करता चला जाता है लेकिन सांप्रदायिकता के बढ़ने के कारण जब लोग समूह में और गुटों में बंटने लगते हैं तो इससे देश की शांति भंग होने लगती है।

राष्ट्रीय सुरक्षा पर प्रभाव: यह राष्ट्र को अंदर से खोखला बना देती है और जब देश के लोग आपस में ही हिंसा करने लगते हैं तो बाहरी शक्तियों को यह अवसर मिल जाता है कि वे राष्ट्र को नुकसान पहुंचाने की चेष्टा करें तो ऐसे में सांप्रदायिकता सीधे राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनौती देने का काम करती है।

द्वेष को बढ़़ावा: सांप्रदायिकता के कारण लोग आपस में एक दूसरे से नफरत करने लगते हैं और इससे देश में नफरत को बढ़ावा मिलता है और द्वेष की भावना लोगों के मन में घर करने लग जाती है जो कि समय-समय पर हिंसा के रूप में हमें दिखाई देने लगती है।

विकास में रूकावट: सांप्रदायिकता के बढ़ने से लोग एक दूसरे का सहयोग करना बंद कर देते हैं तथा एक दूसरे समूह का नुकसान करने लगते हैं ऐसे में सामान्य जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है और जो भी विकास के कार्य चल रहे होते हैं वह रुक जाते हैं इस प्रकार सांप्रदायिकता सीधे तौर पर देश के विकास में रुकावट बनती है।

संप्रदायिकता के सकारात्मक पक्ष


अब ऐसा नहीं है कि सांप्रदायिकता केवल नकारात्मक ही होती है इसके कुछ सकारात्मक पक्ष भी होते हैं जिन्हें जानना आवश्यक है। दरअसल संप्रदाय बनाना बुरा नहीं है लेकिन अपने संप्रदाय को श्रेष्ठ मानना और अन्य संप्रदायों को हीन मानना यह मूल वजह है जिसके कारण सांप्रदायिकता को नकारात्मक समझा जाता है। लेकिन यदि इसके सकारात्मक पक्ष की बात करें तो यदि कोई व्यक्ति ऐसा है जो सांप्रदायिकता के चलते अपने संप्रदाय के हित के लिए कार्य करता है, उसकी सामाजिक छवि को सुधारने का प्रयास करता है, अपने लोगों को शिक्षित करने का प्रयास करता है तो यहां पर हम कह सकते हैं कि सांप्रदायिकता एक सकारात्मक पक्ष भी निभा सकती है।

इस प्रकार प्रत्येक विचारधारा की तरह सांप्रदायिकता भी नकारात्मक और सकारात्मक दोनों हो सकती है परंतु ज्यादातर समय जो भी अभी तक की घटनाएं हुई है वहां पर हमें इसका नकारात्मक रूप ही बड़ा दिखाई देता है। इसलिए इसके नकारात्मक पक्षों को पहले पढ़ा जाता है परंतु सकारात्मक पक्षों को भी नकारा नहीं जा सकता।

सांप्रदायिकता व राजनीति


बीते कुछ समय में ऐसा देखा गया है की राजनीति में सांप्रदायिकता का प्रभाव बढ़ रहा है और सांप्रदायिकता का सहारा लेकर अक्सर राजनीतिक दल वोट बटोरने का प्रयास करते हैं। ऐसे में राजनीति, जिसे कि सांप्रदायिकता को समाप्त करने के लिए प्रयास करने चाहिए वह कभी-कभी सांप्रदायिकता को बढ़ाने का कार्य भी करती है यदि सक्रिय रूप से राजनीतिक नेता अपने संप्रदाय को लोकतांत्रिक मंचों पर श्रेष्ठ बताने का प्रयास करेंगे तो इससे सांप्रदायिकता की भावना दिन प्रतिदिन बढ़ती चली जाएगी और इसी के चलते हमें सांप्रदायिक हिंसा देखने को मिल सकती है जैसे कि पहले हमें अनेकों बार इस प्रकार की घटनाएं देखने को मिली है जिनमें 1984 के सिख दंगे, 1992 में बाबरी मस्जिद को तोड़ना, और 2002 के गुजरात दंगे शामिल किए जा सकते हैं।

इसलिए राजनीति से यह अपेक्षा रखी जाती है कि वह किसी भी प्रकार से सांप्रदायिकता का सहारा ना ले और जिस भी संप्रदाय से कोई नेता आता है वह भले ही निजी रूप से अपने संप्रदाय का सहयोग करें एवं उसके व्यक्तियों का भला करने का प्रयास करें परंतु लोकतांत्रिक मंचों व साधनों का प्रयोग सार्वजनिक रूप से एक विशेष समुदाय को श्रेष्ठ बताने के लिए न करे जो कि संविधानिक नैतिकता के खिलाफ जाता है और हर प्रकार से नकारने योग्य है।

शिक्षा व सांप्रदायिकता


शिक्षा वह हथियार है जिसका प्रयोग कर सांप्रदायिकता का समूल नाश किया जा सकता है लोगों में जब शिक्षा नहीं होती तो वे मनोवैज्ञानिक रूप से दूसरे समुदायों से नफरत करने लगते हैं वे समझ नहीं पाते कि सामने वाला समुदाय उनसे क्यों अलग है और क्यों एक राष्ट्र के रूप में हम सब के हित समान है। वे अवधारणाएं जो एक राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधे रखती हो और लंबे समय तक देश के विकास में सहायक रहती हों उन्हें हमें शिक्षा के माध्यम से आगे बढ़ना चाहिए। यह भी बताना चाहिए की विविधता किसी भी प्रकार से भिन्नता नहीं है हर व्यक्ति अपने हिसाब से जीवन जी सकता है सभी व्यक्ति एक समान नहीं हो सकते और सभी व्यक्तियों का हमें सम्मान करना चाहिए और मिलजुल कर रहना चाहिए।

शिक्षा के प्रसार से लोगों में जो शंकाएं बनी हुई है या जो भय का माहौल होता है जो कि बाद में नफरत में तब्दील हो जाता है उसको कम करने व अंत में संपूर्ण रूप से समाप्त करने में सहायता मिलेगी। जिससे कि राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा मिलेगा व लोग शांतिपूर्ण जीवन जी सकेंगे इसलिए शिक्षा के माध्यम से हर प्रकार से यह कोशिश की जानी चाहिए कि सांप्रदायिकता की विचारधारा को समाप्त किया जा सके। ध्यान देने योग्य है कि इस दिशा में सरकार द्वारा लगातार प्रयास भी किया जा रहे हैं। 

सांप्रदायिकता का निवारण व समाधान 

सांप्रदायिकता का निवारण व समाधान अनेक प्रकार से किया जा सकता है जिसमें से कुछ मुख्य उपायों की बात हम नीचे कर रहे हैं।

न्याय व्यवस्था को सुदृढ़ करना: सर्वप्रथम न्याय व्यवस्था को सदृढ़ किए जाने की आवश्यकता है। सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में तुरंत संज्ञान लेकर अपराधियों को दंडित करना व निर्दोषों व पीड़ितों को तुरंत न्याय देना तथा पर्याप्त मुआवजा देकर उनके जीवन को सुचारू रूप से चलने में सहायता करना यह सभी कार्य किए जाने चाहिए। ताकि पीड़ितों के मन में न्याय व्यवस्था के प्रति द्वेष जन्म ना ले सके साथ ही अपराधियों के मन में भय बने।

शिक्षा का प्रसार: शिक्षा के माध्यम से यह प्रयास किया जाना चाहिए कि बच्चों को शुरू से ही शांति, धर्मनिरपेक्षता तथा सद्भावना से संबंधित विचारधाराए पढ़ाई जाएं। बचपन से ही उनके मन में एकता की भावना का प्रसार किया जाए ताकि आगे चलकर वे ऐसी किसी भी विचारधारा को रोक सके जो देश को तोड़ने का काम करती हो।

प्रशासन की सक्रियता: प्रशासन को यह चाहिए कि वह सांप्रदायिक हिंसा में सक्रिय रूप से छानबीन करें। पुलिस को इस संबंध विशेष प्रशिक्षण दिया जाए कि सांप्रदायिक हिंसा की स्थिति में किस प्रकार से निर्णय लेना है और किस प्रकार से कार्यवाही करनी है। साथ में ऐसी एजेंसियों की स्थापना की जानी चाहिए जो सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में अपराधियों को पकड़ सके और उन्हें उचित सजा दी जा सके व उनके मन में भय बन सके।

कठोर कानून: राज्य द्वारा कठोर कानूनों का निर्माण किया जाना चाहिए जो कि सांप्रदायिक घटनाओं के मामले में काफी कठोर हों। इसके साथ ही लोगों में उस कानून के प्रति जागरूकता भी फैलाई जानी चाहिए ताकि कोई भी व्यक्ति भय की स्थिति में ना रहे। इससे किसी भी प्रकार की सांप्रदायिक घटना को पूर्ण रूप से समाप्त करने में सहायता मिलेगी।

निष्कर्ष


तो इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सांप्रदायिकता एक प्रकार की विचारधारा है जो धर्म के आधार पर समुदायों में बढ़ती है और फिर एक दूसरे के हित के साथ टकराती है। राज्य का यह कर्तव्य है कि वह सांप्रदायिकता को समाप्त करें। ऐसे में राजनेताओं को भी धर्मनिरपेक्ष होना पड़ेगा और संविधान के अनुसार कार्य करना पड़ेगा। साथ में पिछले दो दशकों में जो भी घटनाएं भारत में हुई है उनसे सीख लेकर विभाजनकारी नीति को समाप्त करने की भी आवश्यकता है और औपनिवेशिक काल में जो भी सांप्रदायिकता के बोए गए थे उनका उनसे जो वृक्ष बन चुका है उसे काटे जाने की आवश्यकता भी है इस प्रकार एक अच्छा समाज बनाने के लिए सांप्रदायिकता पर नियंत्रण पाना आवश्यक है।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट