यह पृष्ठ संत कबीर दास जी
के दोहों का संग्रह है इस पृष्ठ पर उन दोहों को सम्मिलित करने का प्रयास किया गया
है जो लोकप्रिय हैं कबीर दास जी के दोहों में जीवन के सभी पडावों से सबंधित ज्ञान
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माटी कहे कुम्हार से, तू
क्या रौंदे मोय...
एक दिन ऐसा आएगा, मैं
रौंदूगी तोय...
अर्थात: माटी और कुम्हार की काल्पनिक वार्ता का वर्णन करते हुए
कबीर जी कहते हैं कि जैसे कुम्हार मिट्टी को रौंदता है उसे मनचाहा आकार देता है
उसी प्रकार एक दिन यह अवसर मिट्टी को भी मिलेगा जब जीवन के पश्चात कुम्हार का
नश्वर शरीर मिट्टी में ही मिल जाएगा वह अपने अनुसार उसे आकार-निराकार करेगी उस दिन
मिट्टी कुम्हार को रौंदेगी इस संसार में प्रत्येक को अवसर मिलता है सब समय पर
निर्भर है
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा
ना मिलिया कोय...
जो दिल खोजा आपना, मुझसे
बुरा ना कोय...
अर्थात: जब मैं बुराई की खोज में निकल पडा तो इस पूरे संसार में
खोजने के पश्चात भी मुझे बुरा नही मिला सभी में कोई ना कोई अच्छा गुण अवश्य ही था
परन्तु जब मैंने अपने मन में झांका तो पाया कि मुझसे बुरा तो कोई है ही नही जो
बुरे की खोज में प्रयासरत है बुरे को ढूँढने वाले से बुरा भला इस संसार में और कौन
होगा
धीरे धीरे रे मना, धीरे सब
कुछ होय...
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए
फल होय...
अर्थात: कबीर अपने मन को धीरज बांधते हुए कहते हैं कि तू धीरज रख
धैर्य मत खो सब कुछ धीरे धीरे ही होता है तथा प्रत्येक क्रिया पूर्ण होने में एक
निश्चित समय लेती है अधीर होने की आवश्यकता नही है जैसे एक माली चाहे सौ घड़े पानी
से पेड़ को सींच दे या आवश्यकता अनुसार पानी डाले वृक्ष पर फल उसी समय आएँगे जब फल
आने की ऋतु (मौसम) आएगी
ऊँचे पानी ना टिके, नीचे ही
ठहराय...
नीचा हो सो भारी पी, ऊँचा
प्यासा जाय...
अर्थात: मनुष्य को सदैव झुक कर ही कुछ पाने की इच्छा करनी चाहिए
किसी से ज्ञान प्राप्त करने के लिए भी झुकना ही पड़ता है क्योंकि अकड़ कर ऊँचा होने
का दिखावा करने वालों को कभी भी कुछ प्राप्त नही होता कबीर जी उदाहरण देते हुए
कहते हैं कि चाहे पानी ही क्यों ना हो वह कभी भी उंचाई पर नही ठहरता सदैव नीचे
गहराई में ही ठहरता है तथा नीचे रहने वाला मनुष्य जी भर कर पानी पी लेता है जबकि
उंचाई पर रहने वाला या हवा में उड़ने वाले पक्षियों को पानी की प्राप्ति नही होती
उन्हें पानी (ज्ञान) को प्राप्त करने के लिए गहराई में आना ही पड़ता है
माला फेरत जुग भया, फिरा ना
मन का फेर...
कर का मनका डार दे, मन का
मनका फेर...
अर्थात: कोई मनुष्य जो हाथ में माला लेकर फेरता है प्रभु का नाम
लेता है तथा एक लम्बी उम्र तक इस प्रक्रिया को दोहराता है परन्तु उसका मन शांत नही
हो पाता क्योंकि वह माला तो फेरता है परन्तु मन लगाकर ईश्वर का ध्यान नही करता
कबीर सलाह देता है कि इस माला को छोड़ कर यदि मनुष्य मन रुपी मोतियों की माला जपे
अपने मन को शांत करने का प्रयास करे अपने मन की मैल साफ़ करे तब ही उसे सच्ची
शान्ति का एहसास होगा
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन
मैल ना जाय...
मीन सदा जल में रही, धोये
बांस ना जाए...
अर्थात: नित नहाने से कोई लाभ नही होता, कोई स्वच्छता नही आती जब
तक की मनुष्य अपने मन की मैल को साफ़ नही करता तन की स्वच्छता से अधिक मन की
स्वच्छता का महत्व है कबीर जी उदाहरण देते हुए कहते हैं कि तन मात्र की स्वच्छता
रखने वाला मनुष्य मछली के समान है जो सदैव पानी में रहती है यदि उसे निकालने के
बाद भी साफ़ पानी से धो लिया जाए फिर भी उसकी दुर्गन्ध नही जाती इसलिए लिए कबीर जी
मनुष्य को मन (विचारों) को स्वच्छ रखने हेतु प्रेरित करते हैं
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके
लागू पाँय...
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद
दियो मिलाय...
अर्थात: कबीर जी एसी स्थित की वर्णन करते हुए स्वयं से पूछते हैं
कि यदि गुरु और ईश्वर दोनों मेरे सम्मुख खड़े हो जाएं तब पहले मुझे किसके पाँव छूने
चाहिए क्योंकि दोनों का स्थान हृदय में सर्वोच्च है कबीर जी स्वयं इसका उत्तर देते
हुए कहते हैं; पहले मैं गुरु के पाँव छू कर आशीर्वाद लूँगा क्योंकि मेरे गुरु ने
ही मुझे भगवान् का ज्ञान दिया है जिसके बाद मैं जान सका हूँ कि ईश्वर क्या है कबीर
जी ने गुरु का स्थान भगवान् से भी ऊँचा माना है
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे
पानी पैठ...
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा
किनारे बैठ...
अर्थात: जिस मनुष्य किसी मंजिल को पाने के लिए संघर्ष किया है वह
देर सवेर उसे पा ही लेता है चाहे उसे थोडा कम मिले परन्तु मिलता जरूर है इस पंक्ति
को उदाहरण देते हुए कबीर दास जी कहते हैं एक गौताखोर पानी की गहाराई तक जाते हैं
तथा कुछ ना कुछ खोज ही लेते हैं जिससे वे जीवन यापन कर सकें उसके विपरीत ऐसे भी
होते हैं जो डूबने मात्र के भय से पानी में जाते ही नही और किनारे पर बैठे रहते
हैं ऐसे संघर्षहीन व्यक्तियों को पूरी उम्र कुछ नही मिला पाता क्योंकि बिना संघर्ष
के फल की आशा करना व्यर्थ है
अति का भला ना बोलना, अति
की भली ना चुप...
अति का भला ना बरसना, अति
की भली ना धूप...
अर्थात: आवश्यकता से अधिक कुछ भी हो वह कष्टदायी ही होता है इसीलिए
प्रत्येक कार्य की एक सीमा होती है ना तो वह उस सीमा से कम होना चाहिए ना ही अधिक,
आवश्यकता से अधिक बोलने वाला व्यक्ति भी हानि ही उठाता है और आवश्यकता से कम बोलने
वाला व्यक्ति भी अपनी बात समय पर नही कह पाता तथा हानि उठाता है ठीक उसी प्रकार
जिस प्रकार आवश्यकता से अधिक वर्षा बाढ़ लाती है तथा आवश्यकता से कम वर्षा या
आवश्यकता से अधिक धूप सूखे का कारण बनती है इसीलिए प्रत्येक क्रिया एक सीमा विशेष
के अन्दर ही होनी चाहिए
प्रेम प्याला जो पिए, शीश
दक्षिणा दे...
लोभी शीश न दे सके, नाम
प्रेम का ले...
अर्थात: प्यार आत्मा को इतना पवित्र कर देने की क्षमता रखता है कि
इस की एक घूँट पीने के लिए प्रेमी अपना शीश तक न्यौछावर कर सकता है परन्तु वह
मनुष्य जिसके दिल में प्रेम नही है और प्रेम करने का दिखावा मात्र करता है वह कभी
भी शीश नही दे सकता उसे प्रेम से ज्यादा प्रिय अपने प्राण होते हैं जबकि सच्चे
प्रेम में लिप्त मनुष्य अपने प्राणों की कभी भी परवाह नही करता
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे
पेड़ खजूर...
पथीं को छाया नही, फल लागे
अति दूर...
अर्थात: दौलत-शोहरत को प्राप्त कर समाज में एक बड़ा नाम बनाने वालों
पर कटाक्ष करते हुए कबीर जी ने उन्हें उस खजूर के पेड़ के समान माना है जो लम्बाई
में बहुत ऊँचा है तथा सबसे बड़ा प्रतीत होता है कबीर जी कहते हैं खजूर का पेड़ बड़ा
तो हैं लेकिन किसी राहगीर को ठंडी छाया दे पाने में समर्थ नही है और उसके फल भी
बहुत उंचाई पर हैं जिन्हें तोड़ पाना कठिन है इसीलिए समाज में ऐसे बड़े लोगों को दिल
और कर्मों से भी बड़ा होना चाहिए
फल कारण सेवा करे, करे ना
मन से काम...
कहे कबीर सेवक नही, चाहे
चौगुना दाम...
अर्थात: फल की लालसा में कर्म करने वाला मनुष्य कभी भी मन लगाकर
काम नही कर सकता उसका पूरा ध्यान कर्म के बाद मिलने वाले फल पर ही केन्द्रित रहता
है कबीर जी ऐसे मनुष्यों को सच्चा सेवक नही मानते ऐसे व्यक्ति दाम (पैसे) मात्र के
लिए कार्य करते हैं तथा कभी भी सच्चे सेवक नही कहला सकते
कबीर खड़ा बाज़ार में, मांगे
सबकी खैर...
ना काहू से दोस्ती, ना काहू
से बैर...
अर्थात: कबीर दास जी स्वयं से कहते कि इस संसार में वे सभी
मनुष्यों का भला चाहते हैं वे संसार को एक बाज़ार की संज्ञा देते हुए एक एसा स्थान
बताते हैं जहां लोग अपने अपने कार्यों में व्यस्त है तथा जीवनयापन के लिए संघर्षरत
हैं कबीर सबका भला चाहते है तथा कहते हैं कि यदि आप किसी से दोस्ती नही कर सकते तो
कम से कम किसी के लिए दिल में बैर भी मत रखिए यदि दोस्त नही बना सकते तो दुश्मन भी
मत बनाइए
जब गुण को गाहक मिले, तब
गुण लाख बिकाई...
जब गुण को गाहक नही, तब
कौड़ी बदले जाई...
अर्थात: जब किसी विशेषता को परखने वाला हो उसका सम्मान करने वाला
हो तब उस गुण रुपी विशेषता का महत्व बढ़ जाता है जैसे किसी ज्ञानी व्यक्ति के ज्ञान
के लिए लालाहित कोई शिष्य मिल जाए या किसी वस्तु को पाने के लिए लालाहित कोई गाहक
मिल जाए तब ज्ञान तथा वस्तु की कीमत हो जाती है एक तरह से वह अनमोल हो जाता है तथा
यदि विपरीत स्थिति में कोई भी लालाहित मनुष्य ना मिले या कोई परख करने वाला ना
मिले तब वही ज्ञान तथा वही वस्तु कौड़ी के भाव रह जाती है इसीलिए गाहक पर ही किसी
ज्ञान/वस्तु की कीमत निर्भर करती है
पानी केरा बुदबुदा, अस
मानुस की जात...
एक दिन छिप जाएगा, ज्यों
तारा परभात...
अर्थात: कबीर जी कहते हैं कि मनुष्य की शरीर पानी में उठे उस
बुलबुले की भांति है जो क्षण मात्र के लिए होता है यह नश्वर है मनुष्य का शरीर एक
दिन उसी प्रकार नष्ट हो जाएगा जैसे सुबह होते ही तारे छिप जाते हैं तथा अपना होने
का अस्तित्व ही नही जता पाते इसी प्रकार एक दिन मनुष्य के शरीर का भी कोई अस्तित्व
ही नही रह जाएगा
सोना सज्जन साधू जन, टूट
जुड़े सौ बार...
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के,
एइके ढाका दरार...
अर्थात: सज्जन व्यक्ति जो सदैव लोगों के हित में कार्य करते हैं
लोगों का भला चाहते हैं वे उस सोने के समान होते हैं तो सौ बार टूटने के पश्चात भी
दोबारा जुड़ जाते हैं तथा किसी भी बहुमूल्य आभूषण में परिवर्तित हो सकते हैं सज्जन
व्यक्ति लाख बुरा होने पर भी संभल जाते हैं परन्तु बुरे कर्म करने वाले दुर्जन व्यक्ति
कुम्हार के उस घड़े के समान होते हैं जिसमें एक बार मामूली सी दरार आने पर भी
दोबारा ठीक नही हो सकते वह दरार उनमें सदैव बनी रहती है दुर्जन व्यक्तियों के साथ एक
बार बुरा होने पर ही वे टूट कर बिखर जाते हैं
एसा कोई ना मिला, हमको दे
उपदेश...
भौ सागर में डूबता, कर गहि
काढै केस...
अर्थात: कबीर जी कहते हैं कि इस सम्पूर्ण संसार में उन्हें एसा एक
भी सज्जन नही मिला जो उनका पथ प्रदर्शन कर सके उन्हें उपदेश रुपी ज्ञान दे सके वे
एक उदाहरण देते हुए कहते हैं कि एक पथ प्रदर्शक अपने उपदेशों से संसार का उसी
प्रकार भला कर सकता है जैसे अज्ञान रुपी समुंद्र में डूबते प्राणी को उनके केश पकड़
कर डूबने से बचा लिया जाए
यह तन विष की बेलरी, गुरु
अमृत की खान...
सीस दिए जो गुरु मिले, तो
भी सस्ता जान...
अर्थात: कबीर जी गुरु का महत्व समझाते हुए कहते हैं कि यह शरीर एक
नश्वर वस्तु है जो अज्ञान रुपी विष से भरी हुई है इसमें किसी प्रकार का ज्ञान नही
है इसका कोई महत्व नही है जबकि गुरु का महत्व उस अमृत की खान के समान है जिसमे
असीमित ज्ञान है गुरु से प्राप्त ज्ञान के बदले यदि शिष्य अपना शीश भी दे दे तो यह
भी उस ज्ञान के समक्ष एक तुच्छ गुरु दक्षिणा होगी
कबीर तन पंछी भया, जहां मन
तहां उड़ी जाई...
जो जैसी संगती करे, सो तैसा
ही फल पाई...
अर्थात: कबीर अपने तन की कल्पना एक पंछी के समान करते हैं जैसे एक
पक्षी जहाँ मन करे वहां उड़ान भरता है उसी प्रकार तन भी अपनी मनोस्थिति अनुसार जहां
चाहे वहां चला जाता है जो मनुष्य जैसी संगति में बैठता है तथा विचारों को सांझा
करता है वह उसी प्रकार का विचार अपने अन्दर धारण करता है तथा वैसा ही बन जाता है व
अपने विचारों के अनुसार ही कर्मो का फल प्राप्त करता है
कबीरा गरब ना कीजिए, कबहू
ना हासिए कोय...
अजहू नाव समुद्र में, ना
जाने का होय...
अर्थात: कबीर जी का कथन है; हे मनुष्य... कभी भी स्वयं पर अभिमान
मत कर, अहंकार को त्याग दे, अपने अन्दर की “मैं” का नाश कर, घमण्ड में मत जी, कभी
भी दूसरों का मजाक मत बना क्योंकि तेरा जीवन विशाल समुंद्र में तैर रही उस नाव के
समान है जिसकी किसी भी समय कोई भी हानि हो सकती है कोई नही जानता कब इस जीवन रुपी
नाव के साथ क्या घटित हो जाए इसीलिए सदैव उस ईश्वर को याद रखना चाहिए और भले कर्म
करने चाहिए
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह
न बारम्बार...
तरूवर ज्यों पत्ता झड़े,
बहुरि न लागे डार...
अर्थात: मनुष्य जन्म बड़ी ही कठिनाईयों के बाद मिलता है मनुष्य शरीर
को पाना इतनी दुर्लभ (विरल) घटना है कि बार बार यह सौभाग्य सभी को नही मिलता
इसीलिए इस जीवन को सदैव सार्थक बनाने का प्रयास करना चाहिए कबीर जी इस जीवन रूप
चक्र को उदाहरण देते हुए समझाते हैं जैसे एक वृक्ष से टूटा पत्ता पुन: वृक्ष की
डाल पर नही लगाया जा सकता उसी प्रकार एक बार मनुष्य जीवन का नाश होने के पश्चात यह
पुन: प्राप्त नही किया जा सकता
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न
सुरझ्या मन...
कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो
पहला दिन...
अर्थात: कबीर जी कहते हैं कि ज्ञान प्राप्त करते हुए, विचारों का
आदान प्रदान करते हुए बहुत लंबा समय बीत गया परन्तु इस मन की उलझनों का किसी भी
प्रकार से कोई समाधान नही हो सका है आज भी यह मन उलझा हुआ है कबीर जी उदाहरण देते
हुए कहते हैं कि मेरा मन आज भी उसी प्रकार से अचेत अवस्था में है जिस प्रकार ये
पहले दिन था जब मैंने ज्ञान को प्राप्त करना आरम्भ किया था
कबीर लहरि समंद की, मोती
बिखरे आई...
बगुला भेद न जानई, हंसा
चुनी चुनी खाई...
अर्थात: कबीर जी समुंद्र की लहरों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि
जब भी समुंद्र की लहरें किनारे तक आती हैं तब अपने साथ मोतियों का एक बिखराव लाती
है तथा किनारे पर मोतियों को बिखेर जाती है वह सभी के लिए समान ही होते हैं किन्तु
बगुला उनकी पहचान नही कर पाता तथा हंस चुन चुन कर मोतियों को निकालता है अर्थात
वस्तुएं व अवसर सभी के लिए समान ही होते हैं परन्तु बुद्धिमान व्यक्ति ही उनका
सदुपयोग करना जानते हैं
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में
है फेर...
ताहि का बख्तर बने, ताहि की
शमशेर...
अर्थात: कबीर जी मनुष्यों की तुलना लोहे से समान करते हैं वे
उदाहरण देते हुए कहते हैं कि कुछ वस्तुएं लोहे से ही बनी है जिनमें बनावट मात्र का
अंतर है लोहे से तलवार बनती है जो रक्त बहाती है तथा उसी लोहे से तलवार की धार से
रक्षा करने वाला कवच बनता है दोनों लोहे से ही बनी है परन्तु एक दुसरे से विपरीत
है इसी प्रकार मनुष्य है उसे जिस प्रकार के विचारों में ढाला जाएगा वह वैसा ही बन
जाएगा
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस
जलै ज्यूं घास...
सब तन जलता देखि करि, भया
कबीर उदास...
अर्थात: कबीर जी मनुष्य शरीर की अंतिम यात्रा का वर्णन करते हुए
कहते हैं कि अंत: में मनुष्य शरीर की हड्डियां इस प्रकार जलती हैं जैसे लकड़ी जलती
है तथा बाल सूखे घास की तरह आग में जल जाते हैं इस नश्वर शरीर का यह दुखद अंत देख
कर कबीर का मन दुःख: से भर जाता है
कबीर सो धन सांचे, जो आगे
को होय...
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न
देख्यो कोय...
अर्थात: कबीर जी कहते हैं कि सब धन को इस प्रकार एकत्रित करते हैं
जैसे वे भविष्य में इसका प्रयोग करेंगे तथा इसे एकत्रित करने के लिए सम्पूर्ण जीवन
न्यौछावर कर देते हैं लेकिन उन्होंने कभी किसी को भी मरने के पश्चात इस धन को सिर
पर उठाए अपने साथ ले जाते हुए नही देखा इसीलिए जीवन को मात्र धन एकत्रित करने में
लगाना सार्थक विचार नही है
माया मुई न मन मुआ, मरी मरी
गया सरीर...
आसा त्रिसना न मुई, यो कही
गए कबीर...
अर्थात: कबीर जी कहते हैं इस संसार में माया का कोई अंत नही है यह
अनंत है कितना ही संचय कर लो परन्तु मनुष्य कभी तृप्त नही होता तथा ओर अधिक की
लालसा करता है मनुष्य का मन कभी नही मरता यह तब तक कोई ना कोई इच्छा रखता है जब तक
शरीर नष्ट नही हो जाता शरीर के बार बार मरने पर भी आशा, इच्छा तथा तृष्णा कभी नही
मरती
गारी ही से उपजे, कलह कष्ट
और भीच...
हारी चले सो साधू है, लागी
चले तो नीच...
अर्थात: गलत शब्दों के प्रयोग से, गाली-गलौच से व अभद्र भाषा से
मात्र कलेश पनपता है, कष्ट का अनुभव होता है तथा मृत्यु समान पीड़ा होती है कबीर जी
कहते हैं कि किसी के द्वारा किए गए अभद्र शब्दों को यदि मन पर लगा कर चला जाए तो
यह जीवन जीना कठिन हो जाएगा एक सज्जन व्यक्ति कभी भी किसी की कही बुरी-भली बातों
का बुरा नही मानता वह अपने शीतल स्वभाव से सभी बुरे व्यक्तियों का हृदय परिवर्तन
कर देता है
मन ही मनोरथ छाड़ी दे, तेरा
किया न होई...
पानी में घीव निकसे, तो
रूखा खाए न कोई...
अर्थात: इस दोहे के द्वारा कबीर जी मनुष्य को मन की इच्छाओं के
पीछे भागने से मना करते हुए कहते है कि तू इतना समर्थ नही है कि अपनी सभी इच्छाएं
पूर्ण कर सके क्योंकि मन की इच्छाओं का कोई अंत नही है ये अनंत हैं तुम इन्हें कभी
भी पूर्ण नही कर सकते संतोष मात्र से इच्छाओं पर विजय पाई जा सकती है उदाहरण देते
हुए कबीर जी कहते हैं कि अगर मन की सभी इच्छाएं पूर्ण करणी इतनी सरल होती जैसे कि
पानी से घी का निकलना तो कोई भी सूखी रोटी नही खाता अर्थात किसी की कोई भी
मनोइच्छा अधूरी नही रहती
साधू भूखा भाव का, धन का
भूखा नाही...
धन का भूखा जी फिरै, सो तो
साधू नाही...
अर्थात: सज्जन व्यक्ति सदैव सम्मान, करूणा और प्रेम के लिए लालाहित
रहता है उसे इन्ही की इच्छा रहती है सज्जनों की नजर में धन का कोई महत्व नही होता
कबीर जी उदाहरण देते हुए कहते हैं कि यदि कोई साधू धन प्राप्ति के लिए ज्ञान बांटता
है, घर घर जाता है तो वह साधू नही है साधू सम्मान/ आदर मात्र को चाहता है
कबीर सुता क्या करे, जागी न
जपे मुरारी...
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे
पाँव पसारी...
अर्थात: कबीर स्वयं से कहते हैं कि जब तू जागता हुआ भगवान् का नाम
नही ले सकता, ईश्वर की उपासना नही कर सकता, प्रभु ध्यान नही लगा सकता तब सो कर तो
तू इससे भी तुच्छ हो जाएगा कुछ भी नही कर पाएगा इसीलिए जब तक तू जाग रहा है प्रभु
का नाम ले, सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर क्योंकि एक दिन तो तुझे हमेशा के लिए ही सो
जाना है इसीलिए जब तक जाग रहा है प्रभु से जुड़ने का, ईश्वर की अराधना करने का
प्रयास कर
रात गंवाई सोय के, दिवस
गंवाया खाय...
हीरा जन्म अनमोल सा, कौड़ी
बदले जाय...
अर्थात: हे मनुष्य... तूने अपना जीवन व्यर्थ कर लिया है रात तू सो
कर काट देता है जिसका कोई मूल्य नही और दिन को तू खाने के लिए जदोजहद करते हुए
बिता देता है ये दिन-रात यूँ ही नष्ट होते जा रहे हैं तेरा ये जीवन अनमोल है, इसका
कोई मोल नही लगा सकते, यह बहुमूल्य है किन्तु तुम अपने जीवन में कुछ भी सार्थक नही
कर पा रहे हो जिस कारण तुम्हारे इस अनमोल जीवन का मूल्य कौड़ी में बदला जा रहा है
इसी कारण जीवन में कुछ सार्थक करने का प्रयास करो इस बहुमूल्य जीवन को एक अर्थ दो
पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित
भया ना कोय...
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो
पंडित होय...
अर्थात: बड़े बड़े ग्रंथो को पढ़ कर उनसे असीमित ज्ञान अर्जित करने के
पश्चात भी इस संसार में कोई भी ज्ञानी नही बन सका है शास्त्रों से, पुस्तकों से
ज्ञान लेकर ना जाने कितने ही मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं लेकिन किसी को भी
वास्तव में सच्चे ज्ञान की प्राप्ति नही हुई कबीर जी कहते हैं कि अगर कोई मनुष्य
प्रेम की भाषा को समझ ले, प्यार के ढाई अक्षर हृदय से पढ़ ले अर्थात प्रेम का
वास्तविक अर्थ जान ले तो वही मनुष्य वास्तविक ज्ञानी कहलाएगा...
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो
पाँवन तर होय...
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो
पीर घनेरी होय...
अर्थात: कभी भी तुच्छ से तुच्छ को भी बुरा भला नही कहना चाहिए
क्योंकि प्रत्येक मनुष्य, वस्तु इत्यादि का अपना एक महत्व होता है कबीर जी उदाहरण
देते हुए कहते हैं कि एक तिनका जो सदैव मनुष्य के पाँव के नीचे रहता है उसे भी कभी
तुच्छ नही समझना चाहिए क्योंकि जब कभी वह उड़ कर आँख में चला जाता है तो असहनीय
पीड़ा का कारण बन जाता है
जैसा भोजन खाइए, तैसा ही मन
होय...
जैसा पानी पीजिए, तैसी वाणी
होय...
अर्थात: जैसे विचार कोई मनुष्य धारण करता है उसी प्रकार का उसका मन
हो जाता है मन के लिए विचार भोजन के समान होते हैं जिस प्रकार भोजन का सबंध स्वस्थ
शरीर से है उसी प्रकार विचारों का सबंध पावन मन से है उसी प्रकार जैसा ज्ञान आप
अर्जित करते हो, जैसा आपका मन है उसी प्रकार की शीतलता आपकी आवाज़ में आती है वाणी
मन के भावों का आइना मात्र है
दोस पराए देखि करि, चला
हसन्त हसन्त...
अपने याद न आवई, जिनका आदि
ना अंत...
अर्थात: हे मनुष्य... तू दूसरों के दोषों को, अवगुणों को देखकर उनका
मजाक बनाता है, उनकी हंसी उड़ाता है, उन्हें मूर्ख समझता है लेकिन दूसरों मात्र के
दोष देखते हुए तुझे कभी भी अपने दोषों का एहसास नही होता होता तुझ में भी असंख्य
दोष है तू इतने अवगुणों से भरा हुआ है कि ना तुझे उनकी शुरुआत का कोई पता है ना
अंत का, तू अनंत दोषों का स्वामी है परन्तु तेरे स्वभाव के कारण तू अपने दोष तो
भूल जाता है लेकिन दूसरों के दोष देख कर मुस्कुराता है
साईं इतना दीजिए, जा में
कुटुम समाय...
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु
ना भूखा जाय...
अर्थात: कबीर जी अधिक की लालसा ना करते हुए मनुष्य को इश्वर से
मात्र इतना मांगने के लिए प्रेरित करते हैं कि जिसमें अपना गुजरा चल सके, जीने के
लिए भोजन मिले और यदि कोई अतिथि आ जाए तो उसे भी पेट भर के खिलाया जा सके इतना
मात्र मनुष्य जीवन के लिए प्रयाप्त है कि मनुष्य अपना पेट भर सके और घर आए अतिथि
का सत्कार कर सके
लूट सके तो लूट ले, राम नाम
की लूट...
पाछे फिर पछताओगे, प्राण
जाहि जब छूट...
अर्थात: कबीर जी मनुष्य को भगवान् की अराधना करने के लिए प्रेरित
करते हुए कहते हैं कि हे मनुष्य... अभी भी समय है भगवान् का नाम लेने की होड़ लगी
हुई है, राम का नाम जितना ले सको ले लो, जितना उस ईश्वर को याद कर सकते हो कर लो,
जब तक ये अनमोल जीवन है राम नाम को लूट लो क्योंकि एक बार इस जीवन का अंत हो गया
तो सब कुछ छूट जाएगा ना तुम ईश्वर का नाम ले सकोगे ना कोई पुण्य कर सकोगे और फिर
तुम्हे पछताना पड़ेगा
जाति न पूछो साधु की, पूछ
लीजिए ज्ञान...
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन
दो म्यान...
अर्थात: किसी भी सज्जन से अगर ज्ञान मिले तो ले लेना चाहिए, उसका
आदर करना चाहिए, कोई भी मनुष्य कितना भी तुच्छ हो या नीच कुल का हो यदि उसके पास
ज्ञान है तो सर झुका कर लेना चाहिए उदाहरण देते हुए कबीर जी कहते हैं कि यदि कोई
साधु द्वार पर आए तो उनसे ज्ञान प्राप्त करना चाहिए बिना उनकी कोई जात बिरादरी
पूछे क्योंकि ज्ञान एक तलवार की तरह है तथा जात-पात म्यान की तरह इसीलिए तलवार का
मोल करना चाहिए अर्थात ज्ञान अर्जित करना चाहिए, म्यान (जात-पात) का कोई महत्व नही
है
जग में बैरी कोई नही, जो मन
शीतल होय...
यह आपा तो डाल दे, दया करे
सब कोय...
अर्थात: यदि मन में शीतलता राखी जाए, धर्य रखा जाए, आदर सहित बात
की जाए, कोमल शब्दों का प्रयोग किया जाए तो कोई भी कभी आपका दुश्मन नही बनेगा जिस
प्रकार आप व्यवहार करते हो उसी प्रकार से लोग आपके साथ व्यवहार करेंगे यदि अपने
मनुष्य अन्दर का अहंकार छोड़ दे तब इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति उस मनुष्य की ओर
दया दृष्टि से देखना प्रारम्भ कर देगा
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप
सुभाय...
सार-सार को गहि रहै, थोथा
देई उड़ाय...
अर्थात: संसार को ऐसे सज्जनों की आवश्यकता है जो मनुष्य के
सद्गुणों तथा अवगुणों की पहचान कर सके तथा जो सद्गुणों का विकास करने के लिए
प्रेरित कर सके व अवगुणों का नाश करने के लिए अधीर कर सके, उदाहरण देते हुए कबीर
जी कहते हैं कि सज्जन/ साधु का व्यक्तित्व एक अनाज साफ़ करने वाले सूप के जैसा होता
है जैसे सूप साफ़ साफ़ अनाज के बीजों को छोड़ कर थोथे कूड़े को उड़ा देता है उसी प्रकार
सज्जन भी सद्गुणों को छोड़ कर अवगुणों का नाश कर देता है
बोली एक अनमोल है, जो कोई
बोलै जानि...
हिये तराजू तौलि के, तब मुख
बाहर आनि...
अर्थात: हमारे द्वारा बोला जाने वाला एक-एक शब्द अनमोल है बोली
व्यक्ति को फर्श से अर्श तक पहुंचाने की ताकत रखती है तथा उसी प्रकार यदि व्यक्ति
सही समय पर सही शब्दों का प्रयोग नही करता तो यह पल भर में व्यक्ति का नाश करने तक
की क्षमता रखती है जो कोई मनुष्य इस बात को समझता है वह अपने हृदय रुपी तराजू में
शब्दों को तौलने के पश्चात ही मुख से बाहर निकालता है तथा कभी भी गलत शब्दों का
प्रयोग नही करता
माया छाया एक सी, बिरला
जाने कोय...
भागत के पीछे लगे, सन्मुख
भागे सोय...
अर्थात: कबीर जी कहते हैं धन तथा परछाई का स्वभाव एक सा होता है ये
दोनों चंचल स्वभाव की होती है बहुत की कम मनुष्यों को इस बात का ज्ञान रहता है, धन
हो या परछाई दोनों भागते मनुष्य के पीछे दौड़ती हैं तथा यदि मनुष्य रूक कर इन्हें
देखने का प्रयास करने लेगे तो ये ओझल होने में भी क्षण नही लगाती इसीलिए माया मोह
के पीछे ना जाकर यदि मनुष्य कर्मो पर ध्यान केन्द्रित करे तो धन एक परछाई की तरह
मनुष्य के पीछे दौड़ेगा
आछे पाछे दिन पाछे गए, हरि
से किया ना हेत...
अब पछताए होत क्या, चिड़िया
चुग गई खेत...
अर्थात: कबीर जी का कथन है; हे मनुष्य... तेरे देखते ही देखते सब
अच्छे-बुरे दिन बीत गए, जो जीवन रुपी समय तुम्हारे पास था सब चला गया, तूने उस समय
में कुछ भी सार्थक नही किया, प्रभु का ध्यान नही किया, स्वंय को इश्वर से जोड़ने का
कभी यत्न नही किया अब जब समय हाथ से निकला गया है तो पछता रहा है तेरी हालत उस
किसान के जैसी है जो समय रहते अपने खेतों की रखवाली नही करता, ध्यान नही रखता,
मेहनत नही करता और अतंत: जब पक्षी उसके खेतों में उगे अनाज का नाश कर देते हैं तब
पछताता है
जब मैं था हरि नही, अब हरि
है मैं नाही...
सब अँधियारा मिट गया, दीपक
देखा माही...
अर्थात: जब मैं अपने “मैं” रुपी अहंकार के अँधेरे में गुम था समझता
था कि जो भी हूँ बस मैं ही हूँ तब तक मैंने ईश्वर को नही पाया अब जब मेरी “मैं” का
नाश हो गया है मुझे ज्ञान रुपी प्रकाश की प्राप्ति हो चुकी है मेरा ईश्वर से नाता
जुड़ गया है और मेरे “मैं” रुपी अहंकार का नाश हो गया है मैंने अपने अन्दर ईश्वर को
पा लिया है मेरा अज्ञान रुपी अंधकार मिट गया और ज्ञान के प्रकाश में मुझे परमात्मा
के दर्शन हुए हैं
पाँच पहर धंधा किया, तीन
पहर गया सोय...
एक पहर भी नाम बिन, मुक्ति
कैसे होय...
अर्थात: आठ पहर में मनुष्य के पास इतना भी समय नही है कि वह सच्चे
मन से ईश्वर को याद कर सके कबीर जी कहते हैं हे मनुष्य... तू पाँच पहर काम करता
है, रोटी कमाता है, धन एकत्रित करता है जो तेरा कर्म है इसके पश्चात अपनी थकान
मिटाने के लिए तू तीन पहर तक विश्राम करता है निंद्रा लेता है जबकि बचे एक पहर में
एक पल भी तू ईश्वर का नाम नही लेता है जरा सोच जो पाप तूने किए हैं उनसे मुक्त
कैसे हो पाएगा
काल करे सो आज कर, आज करे
सो अब...
पल में प्रलय होएगी, बहुरि
करेगा कब...
अर्थात: किसी भी कार्य को कल पर नही छोड़ना चाहिए कभी किसी कार्य को
टालना नही चाहिए अपितु जो कार्य कल करना है उसे आज ही ख़त्म करने का प्रयत्न करो
उसी प्रकार जो कार्य आज करना है उसे अभी कर डालो इसे जीवन का आदर्श बनाओ क्योंकि
जीवन का अंत ना जाने किस क्षण हो जाए मनुष्य शरीर क्षण में नष्ट हो सकता है और एक
बार जीवन समाप्त हो गया तो तुम कुछ भी नही कर सकोगे इसीलिए प्रत्येक काम को अभी के
अभी निपटाने का प्रयास करो
दुःख में सुमिरन सब करे,
सुख में करे ना कोय...
जो सुख में सुमिरन करे,
दुःख काहे को होय...
अर्थात: जब कभी मनुष्य स्वंय को दुःख में घिरा हुआ पाता है तभी वह
ईश्वर को याद करता है तथा दुःख से निजात पाने के लिए प्राथना करता है लेकिन यदि
मनुष्य सुख भोग रहा हो तो कभी भी ईश्वर को याद नही करता, कबीर जी कहते हैं कि यदि
अपने अच्छे समय में, सुख के समय में मनुष्य ईश्वर को याद करने लगे, उसकी महिमा का
गान करने लगे, अच्छे कर्म करने लगे तो उसे दुःख भोगने ही नही पड़ेंगे इसीलिए अच्छा
समय हो या बुरा सदैव ईश्वर को याद रखना चाहिए
कबीर कहा गरबियो, काल गहे
कर केस...
जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै
परदेस...
अर्थात: कबीर जी का कथन है; हे मनुष्य... तू स्वयं पर इतना गुरूर
करता है, घमंड करता है सोचता है कि तू कुछ भी कर सकता है, तुझे अपने इस नश्वर शरीर
पर इतना गर्व है लेकिन ये कभी मत भूल की तेरे केश हर समय काल के हाथ में पकडे रहते
हैं तुझे इस बात कोई अंदाजा नही है कि कब, कहाँ और किस समय काल तेरे प्राण हर ले
तू आकाश में में हो या पाताल में काल की दृष्टि से सदैव तुझ पर बनी रहती है
हिन्दू कहे मोहि राम
पियारा, तुर्क कहे रहमाना...
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए,
मरम न कोउ जाना...
अर्थात: हिन्दू को राम से मोह है, राम की भक्ति में लीन है और
तुर्क (मुस्लिम) रहमान से मोह रखता है रहमान का नाम जपता है और इसी बात पर दोनों
एक दूजे से लड़ते हैं और लड़ते-लड़ते ना जाने कितने मौत के द्वार तक पहुँच चुके हैं
परन्तु आज तक किसी ने भी सच को नही जाना है
निंदक नियरे राखिए, आँगन
कुटी छवाय...
बिन पानी, साबुन बिना,
निर्मल करे सुभाय...
अर्थात: अपने आलोचकों को सदैव अपने निकट रखना चाहिए उन्हें अपनी
निंदा करने दी जानी चाहिए निंदक हमारे छोटे से छोटे अवगुणों से हमें परिचित करवाता
है उसका यह स्वभाव हमारे लिए उस वस्तु के समान कार्य करता है को बिना साबुन तथा
बिना पानी के हमारे स्वभाव हमारे विचारों को साफ़ रखता है तथा हमें अपने अवगुणों को
पहचान उनका नाश करने के लिए प्रेरित करता है
कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि
करै सब छार...
साधु वचन जल रूप है, बरसै
अमृत धार...
अर्थात: कड़वे शब्द सदैव बुरा प्रभाव ही डालते हैं ये उस विष के
समान होते हैं जो पीने वाले का नाश कर देते हैं, तथा हमेशा कष्टदायी होते हैं
सज्जन हमेशा अच्छे व सच्चे शब्दों का प्रयोग करते हैं सज्जनों द्वारा बोले गए जल
रुपी वचन भी अमृत धारा के समान होते हैं क्योंकि उनमें ज्ञान और शीतलता निहित होती
है
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक
मिले असंत.,..
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ
सीतलता ना तजंत...
अर्थात: एक सज्जन व्यक्ति अपने स्वभाव के कारण जाना जाता है वह
लोगों का भला करता है चाहे उसे करोड़ो दुष्ट मिले वह कभी भी अपनी भलाई करने की आदत
को नही छोड़ता जैसे एक संत सच्चा ज्ञान बांटने का यत्न करता है चाहे वो दुष्टों की
संगति में ही क्यों ना बैठा हो कबीर जी ऐसे सज्जनों को उस चन्दन की तरह मानते हैं
जिस पर सदैव सांप लिपटे रहते हैं फिर भी वह अपनी खुशबू और शीतलता को कभी नही
त्यागता
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा
बेपरवाह...
जिसको कुछ नही चाहिए वह
शहंशाह...
अर्थात: इस संसार में प्रत्येक मनुष्य सांसारिक सुखों के पीछे दौड़
रहा है तथा प्रत्येक मनुष्य अपनी इच्छाएं पूर्ण करने के लिए जदोजहद कर रहा है पहले
मनुष्य वस्तुओं को पाने के लिए चिंतित होता है तथा पा लेने के पश्चात उन्हें खो
देने की चिंता रहती है कबीर जी कहते हैं इस संसार में वह मनुष्य जो कोई इच्छा नही
रखता, कोई चाह नही रखता, उसे किसी प्रकार की चिंता नही होती, वह सबसे खुशहाल जीवन
व्यतीत कर रहा है और वास्तव में ऐसी ज़िन्दगी जीने वाले ही दुनिया के वास्तविक राजा
हैं
माँगन मरण समान है, मति
माँगो कोई भीख...
माँगन ते मरना भला, यह
सतगुरु की सीख...
अर्थात: किसी के आगे हाथ फैलाना, भीख माँगना मरने के समान है
इसीलिए भीख ना मांगने की प्रेरणा देते हुए सतगुरु कहते हैं, हे मनुष्य... माँग कर
खाने से अच्छा है कि भूखा रहा जाए, मर जाना मांगने से कहीं बेहतर है मनुष्य को
अपने बल पर जरूरत की वस्तुएं प्राप्त करनी चाहिए किसी से भीख मांग कर गुजारा करना
पुरुषार्थ नही है
झूठे सुख को सुख कहे, मानत
है मन मोद...
खलक चबैना काल का, कुछ मुँह
में कुछ गोद...
अर्थात: सांसारिक सुख झूठा है तथा दिखावा मात्र है जिसे वास्तविक
सुख मानकर मनुष्य अपने मन को प्रसन्न रखता है सांसारिक सुख का कोई महत्व नही है
क्योंकि इस सम्पूर्ण संसार के जीव मृत्यु के लिए भोजन मात्र के सामान हैं जिन्हें
एक ना एक दिन मौत के मुँह में जाना है कबीर जी का कथन है कि इस संसार के सभी जीव
मृत्यु का भोजन है कुछ निवाला बन मौत के मुँह में जा चुके हैं तथा कुछ निवाला बनाने
के लिए मौत ने गोद में बिठा रखे हैं
तन को जोगी सब करे, मन को
बिरला कोई...
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन
जोगी होई...
अर्थात: अपने शरीर को बैरागी बनाने का तथा योगी बनने का दिखावा सभी
कर लेते हैं भगवा वस्त्र धारण कर लेते हैं, ऋषि मुनियों का वेश धारण कर लेते हैं
तथा उनके जैसा रहन सहन बना लेते हैं लेकिन कबीर जी कहते हैं कि ऐसे योगी कभी भी
सिद्धि को प्राप्त नही कर सकते इसकी बजाए यदि मन मात्र को बैरागी कर ले, प्रभु के
ध्यान में लगा ले तो सभी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या
सो कुमलाहीं...
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो
आया सो जाहीं...
अर्थात: इस संसार की प्रत्येक वस्तु नश्वर है प्रकृति का नियम है
कि प्रत्येक क्रिया का अंत है कबीर जी उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जो (सूर्य) उदय
हुआ है वह अस्त भी होगा, जो (फूल) खिला है वह मुरझा भी जाएगा, जो (दीवार) चिना गया
है वह एक ना एक दिन अवश्य ढहेगा, इसी प्रकार मनुष्य जीवन है जो मनुष्य धरती पर आया
है वो एक ना एक दिन मृत्यु को प्राप्त होगा तथा इस संसार से अवश्य जाएगा मनुष्य
प्रकृति की एक रचना मात्र है जो कि नश्वर है
कबीरा ते नर अंध है, गुरु
को कहते और...
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु
रूठे नही ठौर...
अर्थात: इस संसार में गुरु के बिना प्रत्येक मनुष्य अन्धा है तथा
अज्ञान के अँधेरे में खोया हुआ है कबीर जी जीवन में गुरु का महत्व समझाते हुए कहते
हैं कि अगर ईश्वर मनुष्य से नाराज हो जाए तो गुरु बीच में एक डोर की तरह पुन:
ईश्वर को मना लेता है लेकिन अगर गुरु ही नाराज हो जाए तो मनुष्य के पास कोई डोर
नही रहती जो बुरे वक्त में उसे सहारा दे उसे ज्ञान का बोध कराए, उसे ईश्वर के निकट
लाए