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ब्रेटन वुड्स प्रणाली | Bretton Woods System in Hindi

ब्रेटन वुड्स सिस्टम डॉलर को दुनिया की अंतराष्ट्रीय करेंसी बनाने के लिए जिम्मेदार है तथा इसी सिस्टम ने अमेरिका को दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति बनाया है आखिर ब्रेटन वुड्स सिस्टम है क्या? तथा कैसे इसने अमेरिका की ताकत इतनी बढा दी कि आज अमेरिका विश्व शक्ति बन चुका है आइए जानते हैं।

ब्रेटन वुड्स कॉन्फ्रेंस:
ब्रेटन वुड्स सिस्टम को समझने के लिए इसकी नींव से शुरू करना होगा। इस सिस्टम की नींव द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्ति के दिनों में पड़ी जब 1 सितंबर 1939 से 2 सिंतबर 1945 तक चला द्वितीय विश्व युद्ध अपनी समाप्ति की कगार पर था उस समय सभी देश इस युद्ध से हुई तबाही व आर्थिक हानि से उभरने के बारे में सोचने लगे। फलस्वरूप इस स्थिति से निपटने के लिए मित्र पक्ष के देश (एलाइड नेशन) जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में अमेरिका, सोवियत यूनियन, ब्रिटेन तथा चीन का साथ दिया था अमेरिका के न्यू हेम्पशिर शहर के ब्रेटन वुड्स में रखे गए सम्मेलन में एकत्रित हुए। इस सम्मेलन में विश्व के 44 देशों के 720 प्रतिनिधियों ने भाग लिया तथा इसी विश्व स्तरीय सम्मेलन को ब्रेटन वुड्स सम्मेलन या ब्रेटन वुड कॉन्फ्रेंस के नाम से जाना जाता है।

ब्रेटन वुड्स सम्मेलन के कारण:
इस सम्मेलन को बुलाए जाने का मुख्य उद्देश्य था द्वितीय विश्व युद्ध के कारण देशों की आर्थिक व्यवस्था पर पड़े गहरे नकारात्मक प्रभाव से निजात पाना तथा इसके सदस्य देशों को पुनः विकास की पटरी पर वापिस लाना। विकास की सर्वप्रथम माँग थी आर्थिक व्यवस्था व मुद्रा विनमय (करेंसी एक्सचेंज) में स्थिरता। 1944 तक सभी देश सोने को मुद्रा मानक के रूप में प्रयोग कर रहे थे अर्थात सोने का एक निश्चित प्रतिशत स्थाई मुद्रा का काम करता था। परन्तु क्योंकि सभी देश अपनी आर्थिक स्थिति को उभारने के पक्ष में थे इस कारण सोने को एक ऐसी करेंसी से बदलने के पक्ष में थे जो तत्कालीन समय में सबसे सशक्त तथा स्थिर हो और क्योंकि अमेरिका को द्वितीय विश्व युद्ध में सबसे कम हानि उठानी पड़ी थी इस कारण उसकी आर्थिक व्यवस्था व मुद्रा जिसे अमेरिकी डॉलर नाम से जाना जाता है स्थिर एवंम मजबूत स्थिति में थी। तथा दूसरी ओर विश्व के सभी देश एक ऐसे देश की परिकल्पना कर रहे थे जो इस वैश्विक संकट में उनका मार्गदर्शन कर सके। अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी को तबाह कर मित्र देशों की जीत व अपनी मजबूती साबित की थी तथा सभी मित्र पक्ष के देश उसके मार्गदर्शन में चलने से इंकार भी नही कर सकते थे। इतनी मजबूत स्थिति में खड़े अमेरिका की स्थिर अर्थव्यवस्था को देखते हुए सभी ब्रेटन वुड्स सम्मेलन में आए देशों ने डॉलर को विश्व मुद्रा का मानक बनाने पर सहमति जताई। इस प्रकार डॉलर विश्व मुद्रा के रूप में अस्तित्व में आया व और अधिक मजबूती पकड़ने लगा। सभी देशों की इस सहमति के बदले अमेरिका ने कुछ समझौतों पर हस्ताक्षर किए जिन्हें ब्रेटन वुड्स एग्रीमेंट के नाम से जाना जाता है।

ब्रेटन वुड्स एग्रीमेंट:
ब्रेटन वुड्स एग्रीमेंट के तहत यह फैसला लिया गया कि तत्कालीन समय की विश्व की सबसे स्थाई करेंसी डॉलर को विश्व करेंसी घोषित किया जाएगा तथा अंतराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले सभी लेन देन व कर भुगतान डॉलर में किए जाएंगे। बदले में अमेरिका ने निम्नलिखित शर्तों पर हस्ताक्षर किए।

1. अमेरिकी डॉलर के मुकाबले सोने की कीमत हमेशा स्थिर रहेगी तथा 35 डॉलर प्रति औंस की दर से सोना कभी भी एक्सचेंज किया जा सकेगा अर्थात इसी एक स्तर के मूल्य पर सोना अमेरिका से लिया व दिया जा सकेगा।

2. अमेरिका डॉलर को सीमितता में छापेगा जिससे विश्व की यह मुद्रा अपना मूल्य न खो दे अर्थात यदि अमेरिका में डॉलर की कमी होती है तो वह नए नोट छापने की बजाए सोने के बदले अन्य देशों से डॉलर लेगा।

ब्रेटन वुड्स प्रणाली के लागू होते ही आई.एम.एफ. (इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड) अर्थात अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक की स्थापना हुई। ये दोनों संस्थाए आज भी मुद्रा मूल्यों व विनमय दरों को स्थिर करने का कार्य करती है। अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष अपने सदस्य देशों की मुद्रा के वैश्विक स्तर मूल्यों का ध्यान रखती है। जिससे देशों में होने वाले अंतराष्ट्रीय व्यापार का किसी एक देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव न पड़े तथा मूल्य में भारी गिरावट व भारी तेजी से बचा जा सके। इस प्रकार नियमित व सुचारू मूल्य दरों के चलते किसी भी देश के विकास की रफ्तार व इसकी भविष्य आर्थिक स्थिति का  वास्तविक अंदाजा लगाया जा सकता है। 1944 में डॉलर को मूल रूप से अपनी मुद्रा घोषित करने वाली आई.एम.एफ. वर्तमान में चार देशों की करेंसी को अंतराष्ट्रीय करेंसी के रूप में प्रयोग करती है ये चार करेंसी हैं डॉलर, यूरो, पाउंड तथा येन हैं। इन चारों मुद्राओं को सयुंक्त रूप से एस.डी.आर. (स्पेशल ड्राइंग राइट) कहा जाता है।

अब सभी देश जो पहले सोने का मूल्य मानक के रूप में प्रयोग होने के कारण सोना संग्रहित किए हुए थे उन्होंने ब्रेटन वुड्स प्रणाली लागू होने के बाद अमेरिका से सोने के बदले डॉलर लेना प्रारंभ कर दिया तथा 35 डॉलर प्रति औंस की दर पर सोना खरीदने वाले अमेरिका के पास सोने का भंडार हो गया। इसी कारण आज भी दुनिया के कुल सोने का एक तिहाई हिस्सा अमेरिका के पास है।

ब्रेटन वुड्स सिस्टम का असर तथा इसे हटाए जाने के कारण:
ब्रेटन वुड्स सिस्टम लागू होने के बाद डॉलर अंतराष्ट्रीय तौर पर बहुतयात में प्रयोग होने लगा जिस कारण अमेरिका की आर्थिक स्थिति ने समय के साथ साथ मजबूती पकड़ी। वर्ष 1971 तक सभी देशों ने वैश्विक स्तर पर इस मुद्रा का प्रयोग भी किया। इस बीच विश्व के देशों ने डॉलर पर विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए अमेरिका के समक्ष डॉलर छापे जाने वाली टकसालों का ऑडिट करवाने का प्रस्ताव रखा ताकि इस बात की पुष्टि हो सके कि डॉलर सीमित सँख्या में ही छापे जा रहे हैं परन्तु वियतनाम युद्ध में उलझे अमेरिका ने यह ऑडिट करवाने से मना कर दिया। फलस्वरूप देशों का इस करेंसी से विश्वास उठने लगा। उधर वियतनाम युद्ध जो कि 1 नवंबर 1955 से 23 अप्रैल 1975 तक के लंबे अंतराल तक चला था अमेरिका की आर्थिक स्थिति को कमजोर बना रहा था इसलिए डॉलर की कीमत में गिरावट होने लगी। इसका असर यह हुआ कि अमेरिका में मुद्रा स्फीति की दर (वस्तुओं का मूल्य बढ़ने की रफ्तार) बढ़ने लगी। इस स्थिति में वैश्विक स्तर पर प्रयोग होने वाले डॉलर का अन्य देशों में प्रसार बढ़ने लगा क्योंकि इसकी कीमत कम हो रही थी। इस बीच फ्रांस ने अमेरिका से उसके दिए हुए डॉलर की एवज में अपना सोना वापिस माँगा। इतनी समस्याओं से जूझ रहे अमेरिका के पास जब कोई रास्ता न बचा तो उसने आश्चर्यजनक ठोस फैसला लेते हुए ब्रेटन वुड्स सिस्टम को अस्थाई तौर पर समाप्त करने की घोषणा कर दी। यह घोषणा अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड एम. निक्सन ने 15 अगस्त 1971 को की थी इस घोषणा के बाद अब डॉलर के बदले सोना वापिस नही लिया जा सकता था। अमेरिका ने तर्क दिया कि उसके पास उतनी कीमत का सोना उपलब्ध नही है जितनी कीमत के डॉलर व्यापार के रास्ते अन्य देशों के आरक्षण में पहुँच चुके हैं। इस अकस्मात घोषणा ने विश्व आर्थिक अर्थव्यवस्था को चौंका दिया। दुनिया भर के देशों ने इस घोषणा को "निक्सन शॉक" नाम दिया। अब क्योंकि डॉलर के बदले सोना वापिस नही लिया जा सकता था इसलिए डॉलर का मूल्य शून्य हो गया परन्तु क्योंकि यह एक अंतराष्ट्रीय मामला था इसलिए अमेरिका को कोई न कोई रास्ता निकाल कर सभी देशों को देना था जिससे उन्हें डॉलर के बदले उसी के मूल्य के समान कोई वस्तु प्राप्त हो सके। इस समस्या से निजात पाने के लिए अमेरिका ने साउदी अरब के समक्ष अपना तेल डॉलर में बेचने का प्रस्ताव रखा। और क्योंकि साउदी अरब उसी समय इज़राइल से युद्ध में हारा था जिस कारण उसकी आर्थिक व्यवस्था तहस नहस हो चुकी थी। अपनी बिगड़ चुकी स्थिति से उभरने के लिए साउदी अरब के लिए अपनी आर्थिक व्यवस्था को बढ़ावा देना अनिवार्य हो गया था जिस कारण बहुत कम समय में अधिक तेल बेचने की आवश्यकता थी। इसलिए उन्होंने अमेरिका का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया व बदले में अपने तेल के कुओं की सुरक्षा का जिम्मा अमेरिका को सौंपा। अब जिन देशों के पास बड़ी मात्रा में डॉलर रखे थे वे जल्द दे जल्द इसे खर्च करना चाहते थे ताकि भविष्य में इन्हें लेकर कोई परेशानी खड़ी न हो पाए इसलिए सभी देशों ने साउदी अरब से तेल खरीदना आरंभ कर दिया जिसका मूल्य वे डॉलर में चुकाते थे। इस प्रकार डूबता हुआ डॉलर फिर से अंतराष्ट्रीय स्तर पर तेल खरीदने के लिए अनिवार्य हो गया। डॉलर के इस ने रूप को पेट्रोडॉलर कहा गया। वर्तमान में तेल उद्योग सबसे बड़े उद्योगों की सूची में शामिल है जिस कारण यह डॉलर की मजबूती का कारण भी बना हुआ है। आज सभी ओपेक नेशन (तेल निर्यात करने वाले देश) अपना तेल डॉलर में ही बेचते हैं जिस कारण यह अमेरिका की आर्थिक स्थिति को मजबूत करने के साथ साथ उसे एक महाशक्ति भी बनाता है।

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