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भारत के राष्ट्रपति को रबर स्टांप क्यों कहा जाता है

आपने कभी ना कभी यह शब्द अवश्य सुना होगा कि कई दफा भारत के राष्ट्रपति को रबड़ की मोहर कहकर संबोधित किया जाता है जिसे एक कटाक्ष के रूप देखा जाता है बहुत सी राजनीतिक पार्टी के प्रमुख तथा मीडिया भी कई बार राष्ट्रपति को रबड़ की मोहर कहकर संबोधित करती है लेकिन आखिर ऐसा क्या है कि भारत के राष्ट्रपति को रबड़ की मोहर कहा जाता है जबकि राष्ट्रपति का पद किसी भी देश के लिए सर्वोच्च पद होता है और राष्ट्रपति किसी भी देश का प्रथम नागरिक होता है लेकिन भारत में ऐसा क्या है कि राष्ट्रपति को रबर की मुहर कहकर राष्ट्रपति पद को समाप्त तक किए जाने की बात करने से कटाक्ष करने वाले नही कतराते और क्यों इसका विरोध बहुत कम होता है तो आइए जानते हैं।

दरअसल भारत में राष्ट्रपति की शक्तियां बहुत ही सीमित दायरे में काम करती हैं राष्ट्रपति की शक्तियां पूर्णतया राजनीतिक व्यवस्था पर निर्भर करती हैं यदि सरकार स्थिर है और सभी स्थितियां सामान्य है तब राष्ट्रपति का देश के किसी भी मामले में हस्तक्षेप लगभग ना के बराबर होता है और ज्यादातर मामलों में राष्ट्रपति बाध्य हैं अपनी हामी भरने के लिए। यानी कि वे देश हित में अपनी आवाज उठा तो सकते हैं लेकिन उनकी यह आवाज उठाने के लिए अधिकार बहुत ही सीमित दायरे में है कहीं-कहीं तो राष्ट्रपति को यह अधिकार है ही नहीं कि वह किसी कानून इत्यादि का विरोध कर सके उन्हें मजबूरन किसी भी कानून या विधायक को पारित करने में अपनी हामी भरनी पड़ती है और अपने हस्ताक्षर करने पड़ते हैं। इसलिए राष्ट्रपति की मोहर मात्र एक औपचारिकता बनकर रह जाती है जिस कारण कभी-कभी राष्ट्रपति को रबड़ की मोहर कहकर संबोधित किया जाता है लेकिन यहां आपके लिए यह जानना आवश्यक होगा कि आखिर राष्ट्रपति को संविधान ने बहुत ही बड़ी शक्तियां दी हैं जो पूरे देश में किसी अन्य के पास नहीं है जो पूरे देश में सर्वोच्च शक्तियां हैं जैसे कि किसी राज्य की सरकार को बर्खास्त कर देना, केंद्र सरकार को बर्खास्त कर देना, मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर देना, सजा माफ कर देना इत्यादि लेकिन ये शक्तियाँ होने के बावजूद भी भारत के राष्ट्रपति बेबस क्यों नजर आते हैं और क्यों उन्हें इन कटाक्षों का सामना करना पड़ता है। आइए पहले राष्ट्रपति की उस महत्वपूर्ण शक्ति और उसकी सीमितता को समझते हैं जिस कारण भारत के सर्वोच्च पद पर आसीन राष्ट्रपति सत्ता और राजनीति के सामने बेबस नजर आते हैं।

जब लोकसभा या राज्यसभा से कोई बिल पास होकर राष्ट्रपति के पास आता है तो यह राष्ट्रपति की स्वीकृति या अस्वीकृति देने पर ही निर्भर करता है कि वह बिल कानून में परिवर्तित होगा या नहीं परिवर्तित होगा। यहां तक माना जाता है कि राष्ट्रपति के पास असीमित शक्तियां हैं कि वह कोई भी कानून बनाने से रोक सकते हैं लेकिन:

लेकिन संविधान संशोधन 368 के अनुसार यदि वह बिल बिना किसी परिवर्तन के पुनः पास होकर राष्ट्रपति के पास आता है तो राष्ट्रपति को इससे न सहमत होते हुए भी इस पर अपनी स्वीकृति देनी पड़ती है तो यहां पर राष्ट्रपति की अस्वीकृति का कोई मूल्य नहीं रह जाता।

हालांकि किसी भी बिल पर स्वीकृति राष्ट्रपति अपने विवेक से दे सकते है लेकिन आज तक के इतिहास में राष्ट्रपति ने अपनी स्वीकृति या अस्वीकृति मंत्रिमंडल के साथ विचार-विमर्श करने के बाद ही दी है अस्वीकृति के वीटो का प्रयोग राष्ट्रपति लगभग न के बराबर करते हैं हालांकि इसके साथ ही राष्ट्रपति के पास एक और अधिकार है जिसे कहा जाता है पॉकेट वीटो। जिसके अनुसार किसी बिल पर स्वीकृति देने के लिए राष्ट्रपति समय सीमा के अंदर बाध्य नहीं है इसलिए वह चाहे तो किसी भी को कितना भी लंबित कर सकते हैं जिस कारण समय निकल जाने के पश्चात उस बिल की आवश्यकता ही ना रहे और वह बिल पास ही ना हो सके और यह स्वतः रद्द हो जाए। इस अजीब लगने वाली शक्ति के माध्यम से राष्ट्र्पति किसी कानून को बनने से रोक सकते हैं हालांकि इस प्रकार से कोई बिल रोकना राष्ट्रपति पर नैतिक दबाव डालता है। भरतीय डाक बिल 1984 को रोकने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह द्वारा पॉकेट वीटो का प्रयोग किया गया था जिसके पश्चात यह बिल देरी के चलते रद्द हो गया था।

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