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डच कौन थे

अंग्रेजों के भारत पर शासन करने से पहले अनेक यूरोपीय देशों के लोग भारत में आए और अपने व्यापारिक उद्देश्यों की पूर्ति करने का प्रयास किया हालांकि अंत में अंग्रेज भारत में अच्छी तरह से स्थापित हो सके लेकिन उनसे पहले पुर्तगाली डच और यहां तक कि फ्रांसीसी भी आ चुके थे। इस आर्टिकल में हम बात करेंगे कि डच भारत में कब आए, कहां पर उन्होंने अपनी पहली फैक्ट्री स्थापित की और किस प्रकार से अपने व्यापार का विस्तार किया।

डच मूल रूप से नीदरलैंड के लोगों को कहा जाता है और नीदरलैंड के लोग भारत में पुर्तगालियों के बाद आए थे। यानी कि सबसे पहले यूरोप के किसी देश के लोग भारत आए तो वे पुर्तगाली थे। पुर्तगाली भारत में वर्ष 1498 भारत में आए थे। वर्ष 1498 के बाद यूरोप में जितना भी व्यापार समुद्र के रास्ते भारत से होता था वह पुर्तगालियों के माध्यम से होता था और पुर्तगालियों के जहाज से भारत सहित दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों जैसे इंडोनेशिया से मसालों का व्यापार किया जाता था। हालांकि इस व्यापार में मसालों के अलावा चाय जैसे अन्य उत्पाद भी शामिल थे जो यहां से ले जाकर यूरोप में बेचे जाते थे, लेकिन पुर्तगाली यूरोप में हर स्थान पर उसे नहीं बेचते थे बल्कि डचों के माध्यम से उसे यूरोप में फैलाया करते थे। ऐसे में पुर्तगालियों को इस बात की आवश्यकता थी कि डच उनके अधीन रहें।

लेकिन डचों के पास समुद्री जहाजों से जुड़ी पुर्तगालियों से बेहतर तकनीक थी और साथ में उनके पास हल्के और आसानी से चलने वाले समुद्री जहाज भी थे, जिनके जरिए वे आसानी से और अधिक लाभ के लिए भारत से सीधा व्यापार कर सकते थे। अब ऐसी तकनीक होने के कारण वे अब पुर्तगालियों पर आश्रित नही रहना चाहते थे और भारत से व्यापार करने के लिए उन्हें पुर्तगालियों की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए डचों ने खुद भारत में आने की ठानी। हालांकि उनको यहां तक आने में पुर्तगालियों के बाद लगभग 100 वर्षों का समय लग गया और सबसे पहले उनका जो समुद्री बेड़ा भारत में आया वह वर्ष 1596 में चला लेकिन वह भारत की बजाय सीधा इंडोनेशिया के सुमात्रा पहुंचा था बाद में भारत की ओर आने से पूर्व उन्होंने एक कंपनी की स्थापना की जिसे यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी ऑफ द नीदरलैंड्स के नाम से भी जाना जाता है।

इस कंपनी की स्थापना वर्ष 1602 में हुई तथा यह 65 लाख गिल्डर की संयुक्त राशि लेकर भारत की ओर रवाना हुई, गिल्डर नीदरलैंड की मुद्रा का नाम है। उस समय इस कंपनी का संचालन 17 सदस्य संयुक्त रूप से कर रहे थे और नीदरलैंड की संसद ने इस कंपनी को एकाधिकार दिया था कि वह दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के साथ व्यापार कर सकती थी। आवश्यकता पड़ने पर युद्ध भी कर सकती थी और साथ में व्यापार स्थापित करने के लिए जो भी कुछ साधन आवश्यक है उन्हें प्राप्त करने हेतु जो भी कुछ कदम उठाए जाने आवश्यक थे उठा सकती थी। डचों का जो सर्वप्रथम अभियान 1596 में चला था वह कार्नेलियस के नेतृत्व में इंडोनेशिया की ओर लाया गया था और इस प्रकार हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि 1596 में डचों का भारत की ओर आगमन हुआ लेकिन वे भारत नही इंडोनेशिया पहुँचे। वर्ष 1602 में उन्होंने भारत की ओर रूख किया।

उनका भारत में पहला व्यापारिक केंद्र वर्ष 1605 में आंध्र प्रदेश के मछलीपट्टनम में स्थापित हुआ। शुरुआती समय में उन्होंने धीरे-धीरे भारत में अपना वर्चस्व बनाना शुरू किया तथा साथ ही साथ वे भारत में भी पुर्तगालियों की टक्कर में अपना व्यापार खड़ा कर रहे थे। 1610 में उन्होंने तमिलनाडु के पुलीकट में अपना दूसरा व्यापारिक केंद्र स्थापित किया। इसके बाद 1616 में गुजरात के सूरत तथा 1645 में ने तमिलनाडु के कराईकल में एक ओर फैक्ट्री स्थापित की। इसके बाद वे भारत के पूर्वी तट की ओर बढ़े और वर्ष 1653 में बंगाल के चिनसुरा में तथा 1658 में ओडिशा के बालासौर, तमिलनाडु के नागपट्टनम और बंगाल के कासिम बाजार तथा बिहार के पटना में फैक्ट्री स्थापित की। इस प्रकार कोरोमंडल तथा उत्तरी सिरकार तट पर डचों का वर्चस्व बढ़ा। इसके बाद मालाबार तट पर कोचीन में 1663 में डचों ने एक ओर फैक्ट्री स्थापित की तथा मालाबार में अपना विस्तार करना शुरू किया।

हालांकि याद रखने योग्य है कि डचों ने खुद को व्यापार तक सीमित रखा जबकि इनके लगभग साथ-साथ चल रहे ब्रिटिशों ने भारत के आंतरिक मामलों में भी हस्तक्षेप किया व पूर्ण भूभाग पर नियंत्रण करने में सफल रहे। डचों की कंपनी को नीदरलैंड की संसद ने आगामी 21 वर्षों के लिए व्यापार करने के लिए भारत की ओर भेजा था। जिस रास्ते से पुर्तगाली भारत में लगातार 100 वर्षों से आ रहे थे लगभग उसी रास्ते का प्रयोग कर ही डचों का भी भारत की ओर आगमन हुआ था। हालांकि मूल रूप से यह कंपनी व्यापार करने के लिए आई थी लेकिन जैसा कि चार्टर में तय था कि यह भारत में आवश्यकता पड़ने पर किलेबंदी भी कर सकती थी। इसलिए इसने बंगाल के गिस्ताबुर में अपनी फैक्ट्री की किलेबंदी भी की और पुर्तगालियों व अंग्रेजों से संघर्ष भी किया। और साथ में कोई भी संधि यदि इसे करनी हो तो वह भी कर सकती थी, यह सभी अधिकार इसे आगामी 21 वर्षों के लिए से प्राप्त थे।

डचों ने मूल रूप से मसालों में व्यापार किया और इनमें भी सबसे महत्वपूर्ण काली मिर्च थी क्योंकि यूरोप में काली मिर्ची बहुत ज्यादा मांग थी इसलिए डचों ने इस मांग की पूर्ति करने के लिए व पूर्ण लाभ कमाने के लिए काली मिर्च के व्यापार पर ज्यादा ध्यान दिया। इंडोनेशिया में भी मसाले अच्छी खासी मात्रा में उपलब्ध थे। उस समय इंडोनेशिया को ईस्ट इंडीज के नाम से पुकारा जाता था और इसे मसालों का द्वीप नाम से भी संबोधित किया जाता था। अब क्योंकि दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों में पुर्तगाली पहले से ही स्थापित हो चुके थे और व्यापार के लिए आवश्यक था कि डच कहीं ना कहीं शुरुआत करें व इसके लिए पुर्तगालियों को हराना आवश्यक था। इसकी शुरुआत उन्होंने मलेशिया के मालुकु द्वीप समूह के अंबोना द्वीप से की। वहां पर उन्होंने पुर्तगालियों को हराया और 1605 में वहां से अपने व्यापार का विस्तार करना शुरू किया।

हालांकि डचों ने अपने व्यापार की शुरुआत अंबोना द्वीप से की थी लेकिन उन्होंने अपना पहला व्यापारिक केंद्र वर्ष 1619 में बैटेविया नगर को बनाया जो कि आज के समय जकार्ता के नाम से जाना जाता है। इस प्रकार उन्होंने इंडोनेशिया में अपने प्रथम व्यापारिक केंद्र की स्थापना की और यहां से उनका समुद्र के रास्ते दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों से व्यापार होने लगा। डचों ने धीरे-धीरे इंडोनेशिया पर अपना अधिकार स्थापित करना शुरू कर दिया और फिर 1641 में उन्होंने मलक्का स्ट्रेट पर कब्जा कर लिया जिस पर पुर्तगालियों ने लगभग सवा सौ साल पहले वर्ष 1511 में कब्जा किया था। वहां पर डचों ने पुर्तगालियों को हराया अपना अधिकार स्थापित किया। इससे उनका व्यापार मार्ग और ज्यादा आसान हो गया।

इसके बाद वे श्रीलंका की ओर बढ़े, श्रीलंका उस समय सिलोन के नाम से जाना जाता था और 1658 में उन्होंने श्रीलंका में अपना व्यापारिक केंद्र स्थापित किया और वहां से भी उन्होंने पुर्तगालयों को खदेड़ा। इस प्रकार पुर्तगालियों से लगभग एक सदी बाद आए डच अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल हुए लेकिन केवल व्यापार पर केंद्रित होने व धर्मांधता के चलते जल्द ही उन्होंने दूसरी यूरोपीय शक्तियों के सामने घुटने टेक दिए व लगभग एक सदी बाद भारत में उनका व्यापारिक अस्तित्व समाप्त हो गया।

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